आप
जानते ही हैं कि सनातनियों के लिए अति महत्वपूर्ण पितृपक्ष 18
सितंबर 2024 से प्रारंभ हो
चुका है। पितृपक्ष सनातनियों के लिए बेहद पावन और भावात्मक होता है
पूरे
15 दिन की अवधि में परिवार में
स्वच्छता एवं व्यक्तिगत मानसिक शुद्धता का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। यह
परंपरा प्राचीन काल से जारी है।
. इससे
पहले कि हम श्राद्ध पक्ष के बारे में चर्चा करें आइये हम मनुष्य के जीवन एवं उसकी आत्मा पर संक्षिप्त
चर्चा करते हैं।
6. मानव जीव के अस्तित्व को वैज्ञानिकों एवम तर्क वादियों से स्वीकृति नहीं है।
7. तर्क
वादियों एवं वैज्ञानिकों के विचार से न तो जीवात्मा होती है और न ही
पुनर्जन्म है । कर्म फल के सिद्धांत से भी वे सहमत नहीं होते। कुछ विद्वान
तर्कवादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते अवश्य हैं
जो
व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा को नहीं मानते उन्हें हम नास्तिक कहते हैं। जाबाली ,
चार्वाक
जैसी नास्तिक विचार परंपराएं जैन दर्शन,
बौद्ध-दर्शन इनमे सर्वोपरि हैं.
आस्तिक
परंपराएं और मान्यताएं जीव के अस्तित्व को स्वीकृति देतीं है। हम सब भी मानते हैं कि शरीर के मर जाने के बावजूद भी जीव अस्तित्व में रहता है।
10. जिनने गीता पढ़ी है या उसके बारे में कुछ भी जानकारी
रखते हैं वे यह जरुर जानते हैं कि युगपुरुष कर्मयोगी श्री
कृष्ण ने आत्मा अर्थात जीव के बारे में क्या कहा था ?
11. आत्मा जो अजर है अमर है ,
शरीर
से मुक्त होते ही वह किसी न किसी रूप में
ब्रह्मांड में उपस्थित है। आत्मा पर किसी भी नकारात्मक या सकारात्य्मक किसी भी स्थिति
का प्रभाव नहीं होता।
हम
सब जानते हैं कि- आत्मा जब शरीर में होती
है तो शरीर को जीवंतता देती है । विश्व के अधिकांश मतवालंबी इस तथ्य को मानते हैं। अब्राहमिक
संप्रदायों में पुनर्जन्म का कॉन्सेप्ट तो नहीं है परंतु जीव द्वारा किये गए
कार्यों के अंतिम के गुण-दोष के आधार पर निर्णय ईश्वर द्वारा निर्णय लेने की अवधारणा
अवश्य है । प्राणी को स्वर्ग भेजना है या नरक यह अंतिम निर्णय के वक्त ईश्वर ही
करेंगें.
श्राद्ध्
आयोजन के लिए क्या निर्धारित है..?
नीति
शास्त्र कहता है कि - जो आपके प्रति कुछ भी सकारात्मक कार्य करें तो उनके प्रति
हमें कृतज्ञापित करनी चाहिए।
भारतीय
जीवन दर्शन एवं सामाजिक परंपराओं के अनुसार हममें हर प्राणी के प्रति कृतज्ञता की
अभिव्यक्ति करनी चाहिए। यह धार्मिक आज्ञा मात्र नहीं है। बल्कि यह एक सामाजिकता का
भी उदाहरण है।
आपसे
निवेदन है कि आप इस पॉडकास्ट में अंत तक बने रहिए हम आपको श्राद्ध पक्ष के रहस्य
से परिचित करते हुए तर्कवादियों विचारों का सतर्कता से तथ्यात्मक खंडन कर रहें हैं -
सनातन परंपराओं के अनुसार हम श्राद्ध पक्ष के संबंध विचार करते हैं तो हम
पाते हैं की-
·
पूर्वजों के स्मृति दिवस
मनाने के लिए एक अवधि निर्धारित है. यह अवधि 15 दिवस में पूर्ण होती है. हिन्दी
कैलेण्डर के अनुसार गणेशोत्सव के समापन के पश्चात प्रारम्भ प्रथम दिवस से अंतिम
दिवस तक अर्थात “पितृ-मोक्ष अमावश्या” तक की अवधि में जिस तिथि में पूर्वज का
देहावसान होता है उस दिन से “पितृ- मोक्ष अमावश्या” तक पिता या माता की स्मृति में जल अर्पण किया जाता है. जिसे
तर्पण कहते हैं , इस प्रक्रिया में अलग अलग स्थान के अनुसार अलग अलग तरीके अपनाए
जाते हैं.
·
स्मृति दिवस पर तर्पण करते
समय पिता या माता के अतिरिक्त देवताओं,
ऋषियों, भीष्म-पितामह,
के अलावा श्राद्ध कर्ता द्वारा अपने कुटुंब के , सभी पूर्वजों,
समकालीन भाइयों, बहनों , चाचाओं,
मित्रों, ज्ञात या अज्ञात लोगों,
तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्मान दिया जाता है जो अब इस दुनियां में नहीं हैं.
पितृपक्ष का
उद्देश्य क्या है
·
दिवंगतों को मुख्य रूप से केवल
पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करना है।
·
"15 दिनों तक अपने
दिवंगत पूर्वजों का स्मरण करने की
प्राथमिक शर्त पुत्र तथा पुत्र वधू तथा बच्चों को बंधनकारी होता है कि श्राद्ध
पक्ष में घर को साफ सुथरा एवं आसपास के वातावरण मैं स्वच्छता बनाए रखना ।
·
आप सोचते होंगे कि श्राद्ध
पक्ष में क्या केवल उनका स्मरण किया जाना है जो आपके रिश्तेदार हैं ऐसा नहीं है।आप
जब तर्पण की संपूर्ण प्रक्रिया देखते हैं तब आपको पता चलता है कि - देवता,
ऋषि,
सहित
उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्ति की जाती है जो इस पृथ्वी पर मानव स्वरूप में
जन्म लेते हैं और मरते हैं। आपने सुना होगा जब कभी तर्पण किया जाता है तो अपने
निकटतम रक्त संबंधियों से लेकर रिश्तेदारों तक के नाम का उल्लेख किया जाता है।
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिनका भी सम्मान करते हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त
करते हैं और प्रतीक स्वरूप उनके लिए जल अर्पित करते हैं।
·
इसके अलावा गृहस्थ साधक
प्रत्येक प्राणी मात्र के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। तर्पण करते वक्त पुरोहित
ऋषि मुनियों के साथ-साथ भीष्म पितामह सहित ज्ञात अज्ञात सभी जीवों उल्लेख करते हुए
उनका सम्मान व्यक्त करते हैं।
श्राद्ध का प्रभाव
·
श्राद्ध प्रक्रिया का पालन
करने से हमारे मस्तिष्क में कृतज्ञता की भावना
मजबूत होती है। हम कृतज्ञता उन पर व्यक्त करते हैं जिन पर श्रद्धा और स्नेह
होता है।
·
श्राद्ध जैसे वार्षिक
रिचुअल की पुनर्रावृत्ति से मनो वैज्ञानिक तौर पर हम पवित्रता एवं कृतज्ञता के भाव
को अपनी आदत में आत्मसात कर सकते हैं।
क्या श्राद्ध में बहुत से ब्राह्मण को खीर खिलाने की बाध्यता है.?
·
सनातन धर्म में धार्मिक
रिचुअल्स बाध्यता के साथ पालन करने का कोई आदेश नहीं है. भारत एक कृषि-प्रधान देश
है जहां गोवंश से दूध,
खेतों से चावल आदि विपुल मात्रा में उपलब्ध होता है. जहां चावल की उपज नहीं होती
वहां स्थानीय अनाज से बने खाद्य पदार्थ खिलाने का प्रचलन है.
·
श्राद्ध का संबंध पूर्वजों
के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति पर आधारित है. न कि किसी ब्राह्मण या ब्राह्मणों
को भोजन कराने मात्र से ,
·
श्राद्ध में केवल चार पत्तल/थालियां परोसी जाती हैं. एक पुरोहित के
लिए, दूसरी गाय के लिए,
तीसरी चींटी/कीट पतंगों के लिए,
चौथी कौए के लिए.
·
पुरोहित आपको मार्गदर्शन
देकर प्रक्रिया पूर्ण कराता है,
गाय प्राचीन ग्रामीण भारत से अब तक जीवन
का आधार है, चींटी /पतंगे तथा
कौआ आदि इको-सिस्टम का हिस्सा हैं,
·
क्या श्राद्ध में
बड़ी संख्या में भोजन कराना चाहिए
·
श्राद्ध करना ही बाध्यता
नहीं है तो यह प्रश्न बेमानी है. प्रश्न केवल इतना है कि यदि आप अपने दिवंगत पूर्वजों/ सहयोगियों , तथा सम्पूर्ण मानवता के
प्रति सम्मान एवं करुणा भाव रखते हैं तो
उनको याद करना चाहेंगे.
·
क्या श्राद्ध कुरीति
है...
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सत्यार्थ-प्रकाश के 11वें
सम्मुल्लास में स्वामी दयानंद जी लिखा है कि –“पुरखों को दिया गया पानी तर्पण
भोजनादि उन तक नहीं पहुंचता. !” भौतिक रूप से इस तथ्य को नहीं नकारना चाहिए . इससे
मैं सहमत हूँ.
·
आचार्य रजनीश जैसे तर्क
वादी "श्राद्ध पक्ष को पुरोहितों द्वारा बनाई गई रूढ़िवादी परंपरा मानते हैं”
तर्कशास्त्रियों की दृष्टि उतना ही देखती है
जितना वह देख पाती है। उन्हौने इसके पीछे के मनोविज्ञान को शायद ही समझा हो.
वास्तव में श्राद्ध रूढ़िवाद नहीं है बल्कि एक सोशल इवेंट
है। जो एक व्यक्तिगत-अभ्यास एवं सामूहिक होने पर सोशल इवेंट है.
जिसमें में हम अपने जहां एक ओर लौकिक जीवन के कर्तव्यों
का निर्वहन करते नजर आते हैं, वहीँ दूसरी ओर श्रद्धा , कृतज्ञता एवं आभारी होने की
भावना से स्वयम को भरा महसूस करते हैं. ।
श्राद्ध पक्ष में पंडितों को भोजन करना उद्देश्य मात्र
नहीं है, आर्थिक रूप से गरीब
लोग के लिए कर्ज लेकर श्राद्ध करने की बाध्यता नहीं है।
सामाजिक विज्ञान सामूहिक भावात्मक विकास के लिए प्रेरित
करता है।
सामाजिक विज्ञान
नीति विज्ञान और मनोविज्ञान हमेशा जन्म से
लेकर मृत्यु तक की गतिविधियों का अध्ययन करता है तथा मार्गदर्शन प्रदान करता है।
हमारा सामाजिक जीवन
मानव प्रजाति की राष्ट्र,
समाज, कुटुंब,
परिवार
एवं वैयक्तिक उत्कर्ष में सहायक होता है.
पूर्वजों ने हमें
यही सिखाया। इसके परिणाम भी सुखद है।
हम ऐसे ही बदलाव
लाने के लिए अपने पूर्वजों को धन्यवाद कहते हैं। धन्यवाद कहने की इस प्रक्रिया को
श्राद्ध पक्ष में भली भांति दोहराते हैं .
इस प्रकार हम धन्यवाद
का प्रकटीकरण करके कल्चरल निरंतरता को गतिमान बनाए रखते हैं ।
पृथ्वी के प्रत्येक मानव समूह की नई पीढ़ी
ने अपने अपने तरीके से पूर्वजों के प्रति
कृतज्ञता करना प्रारंभ कर दिया।
अपने पूर्वजों के
प्रति श्रद्धा व्यक्त करना कैसे कोई पाखंड हो सकता है । अब आप ही बताइए यह
अवैज्ञानिक कैसे हैं?
तर्क वादियों के
पुरोधा प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन ने पितृपक्ष और श्राद्ध पूरी ताकत से खंडन किया। खंडन करना उनकी अपनी जगह वैचारिक प्रक्रिया है लेकिन उन्होंने
इसका उपहास भी किया है बिना यह अनुमान लगाए कि श्राद्ध जैसे रिचुअल के पीछे का सामाजिक,
मनोवैज्ञानिक,
आधार
क्या है ?
विगत कई दिनों से उनके अनुसरण करने वाले उनका जन्म दिवस उनके
स्मृति दिवस पर महोत्सवों की कवायद भी कर रहे हैं।
जैसे मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले किसी व्यक्ति की मूर्तियां
बना बना कर उनका पूजन किया जाए तब कैसा लगेगा।
पैगंबर मोहम्मद ने
मूर्ति पूजा को मान्यता नहीं दी उनकी कोई मूर्ति इस्लाम मानने वाले कभी नहीं रखते
न ही वे उसकी कल्पना करते।
प्रोफेसर
रजनीश को यह भ्रम था कि उनकी शिक्षा के
बाद श्राद्ध बंद हो जाएंगे। ऐसा कुछ हुआ
नहीं, इसके विपरीत आप
उनका ही श्राद्ध मनाया जाने लगा।
फर्क जरा सा इतना
है कि -"अब सरकारी सहायता मांग कर, एवं
स्वयं का धन एकत्र कर जनता द्वारा उनकी याद में श्राद्ध मनाने का प्रयास होने
लगा!"
कम्युनों में ओशो का जन्मदिन, स्मृति दिवस मनाया जाता है। यूं तो दुनिया भर
में लोगों के स्मृति दिवस मनाए जाते हैं ,
इसमें बुराई क्या है । पंडितों को खीर
खिलाने के खिलाफ बोलने वाले अकूत संपदा के स्वामी 99 रोल्स-रोयस के मालिक आचार्य रजनीश के डिवोटी मुझे
तरंग आडिटोरियम के आसपास आयोजित गतिविधियों में तरंगित अवास्त्य्हा के पीछे अद्भुत अवस्था में मिले थे , कदाचित
सनातनी श्राद्ध में ऐसा नहीं होता .
जब कोई श्राद्ध पक्ष सवाल उठाता है तो मुझे लगता है कि वह महापुरुषों के
स्मृति दिवसों पर भी सवाल उठाता ही होगा.
हिंदुत्व पर सवाल
उठाने वालों से एक सवाल इस तरह पूछना चाहता हूँ....
वक्त
ज़ाया न कर, मुझ को आजमाने में
।
बहुत
से लोग हैं , मेरी
तरह ज़माने में ।।
भेज
न मुझको,सवालों पे सवालों की रसद
भेज
हों उतने ही जितने, तेरे बारदाने में ।।
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