डॉ. भीमराव आंबेडकर, जिन्हें हम बाबा साहब के नाम से जानते हैं, न केवल भारतीय संविधान के शिल्पकार थे, बल्कि सामाजिक समता और मानव गरिमा के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी विचारक भी थे। उनके जीवन और चिंतन का आधार था—भेदभाव का अंत और सर्वांगीण विकास। बाबा साहब का जीवन हमें सिखाता है कि विषमता का जहर कितना घातक हो सकता है, और उसे अमृत में बदलने की शक्ति मानव के दृढ़ संकल्प में निहित है।
पारसी धर्मशाला की घटना: मन पर गहरा आघात
बाबा साहब के जीवन में कई ऐसी घटनाएँ थीं, जिन्होंने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला। उनमें से एक थी पारसी धर्मशाला की घटना। जब उन्हें और उनके साथियों को केवल इसलिए वहाँ से निकाल दिया गया क्योंकि वे "अछूत" माने जाते थे, तो यह अपमान उनके बालमन पर एक गहरा नकारात्मक प्रभाव छोड़ गया। यह घटना केवल एक व्यक्तिगत अपमान नहीं थी, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था का क्रूर चेहरा थी, जो जातिगत आधार पर मनुष्य को मनुष्य से अलग करती थी। इस दुख और आघात ने बाबा साहब को यह एहसास कराया कि सामाजिक भेदभाव का अंत केवल व्यक्तिगत सुधार से नहीं, बल्कि संरचनात्मक परिवर्तन से ही संभव है।
जाति व्यवस्था और सामाजिक विखंडन
मध्यकालीन भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को गहरे तक विभाजित किया था। यह व्यवस्था न केवल सामाजिक थी, बल्कि आर्थिक और धार्मिक असमानता को भी पोषित करती थी। बाबा साहब ने इस व्यवस्था को समूल नष्ट करने का संकल्प लिया। उनकी पुस्तक *Annihilation of Caste* इस दिशा में एक क्रांतिकारी दस्तावेज है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जहाँ भेदभाव होता है, वहाँ सामाजिक विखंडन स्वाभाविक है। और इस विखंडन के परिणाम भयावह होते हैं—समाज का नैतिक पतन, आर्थिक असंतुलन और मानवीय एकता का क्षय। आज भी जाति व्यवस्था का पूर्ण उन्मूलन बाकी है, जो हमें बाबा साहब के अधूरे सपने की याद दिलाता है।
बचपन का दर्द और संबल की कमी
बाबा साहब ने अपने बचपन में जातिगत भेदभाव का दारुण दुख सहा। स्कूल में पानी के मटके से दूर रखा जाना, सहपाठियों का तिरस्कार, और सामाजिक बहिष्कार—ये सभी अनुभव उनके मन में गहरे तक उतर गए। यह दुख मेरे लिए भी व्यक्तिगत रूप से मर्मस्पर्शी है। मैंने भी स्कूल के दिनों में पोलियो के कारण बैसाखियों पर चलते हुए सहपाठियों के ताने सुने—*“लंगड़े लूले बड़े उपाई, आँख फोड़ बंदूक चलाई”*। यह बुलिंग मेरे लिए केवल शब्द नहीं, बल्कि उस सामाजिक मानसिकता का प्रतीक थी जो “अलग” को स्वीकार नहीं करती। लेकिन मुझे मेरे परिवार, शिक्षकों और बदलती सामाजिक व्यवस्था ने संबल दिया। दुख इस बात का है कि बाबा साहब को उनके बचपन में ऐसा संबल नहीं मिल सका। फिर भी, उन्होंने इस दर्द को अपनी शक्ति बनाया और सामाजिक विषमता के जहर को अमृत में बदल दिया।
गांधी और आंबेडकर: असहमति का
बाबा साहब और महात्मा गांधी के बीच सामाजिक सुधार को लेकर गहरी वैचारिक असहमति थी। गांधी जी जहाँ हिंदू धर्म के भीतर सुधार की बात करते थे, वहीं बाबा साहब जाति व्यवस्था को हिंदू धर्म की जड़ मानते थे और इसके उन्मूलन को आवश्यक समझते थे। यह असहमति केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि दार्शनिक थी। गांधी जी की असहमति को मैं तभी स्वीकार करता, यदि वे समता-आधारित समाज की स्थापना में पूर्णतः सफल हो पाते। लेकिन इतिहास गवाह है कि बाबा साहब का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और संरचनात्मक परिवर्तन पर केंद्रित था। पूना पैक्ट इसका एक उदाहरण है, जहाँ बाबा साहब ने दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया।
सर्वांगीण विकास के प्रणेता
जो व्यक्ति बाबा साहब को समझता है, वह व्यापक दृष्टिकोण का महत्व जानता है। वे केवल दलितों के मसीहा नहीं थे, बल्कि सर्वांगीण विकास के प्रबल समर्थक थे। शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक समानता और संवैधानिक अधिकार—उनका हर प्रयास समाज के हर वर्ग को सशक्त करने के लिए था। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाकर यह साबित किया कि धर्म भी तर्क और समता का प्रतीक हो सकता है। उनकी यह सोच आज भी हमें प्रेरित करती है कि हमें अपने दुख को शक्ति में बदलना है, न कि उसमें डूब जाना है।
**निष्कर्ष: मेरे लिए बाबा साहब**
मेरे लिए बाबा साहब केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक प्रेरणा हैं। मैं ईश्वर से कुछ नहीं माँगता, क्योंकि बाबा साहब ने मुझे सिखाया कि अपनी नियति हम स्वयं लिखते हैं। उनका जीवन इस बात का जीवंत प्रमाण है कि सबसे कठिन परिस्थितियों में भी मानव गरिमा और समता का झंडा बुलंद किया जा सकता है। आज हमें उनके सपने को साकार करने की आवश्यकता है—एक ऐसा समाज, जहाँ न जाति का भेद हो, न शारीरिक अक्षमता का तिरस्कार, और न ही किसी की पहचान उसकी गरिमा पर आँच लाए। बाबा साहब का चिंतन हमें यही संदेश देता है—विषमता को चुनौती दो, और समता को अपनाओ।
गिरीश बिल्लौरे मुकुल
girishbillore@gmail.com
पारसी धर्मशाला की घटना: मन पर गहरा आघात
बाबा साहब के जीवन में कई ऐसी घटनाएँ थीं, जिन्होंने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला। उनमें से एक थी पारसी धर्मशाला की घटना। जब उन्हें और उनके साथियों को केवल इसलिए वहाँ से निकाल दिया गया क्योंकि वे "अछूत" माने जाते थे, तो यह अपमान उनके बालमन पर एक गहरा नकारात्मक प्रभाव छोड़ गया। यह घटना केवल एक व्यक्तिगत अपमान नहीं थी, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था का क्रूर चेहरा थी, जो जातिगत आधार पर मनुष्य को मनुष्य से अलग करती थी। इस दुख और आघात ने बाबा साहब को यह एहसास कराया कि सामाजिक भेदभाव का अंत केवल व्यक्तिगत सुधार से नहीं, बल्कि संरचनात्मक परिवर्तन से ही संभव है।
जाति व्यवस्था और सामाजिक विखंडन
मध्यकालीन भारत में जाति व्यवस्था ने समाज को गहरे तक विभाजित किया था। यह व्यवस्था न केवल सामाजिक थी, बल्कि आर्थिक और धार्मिक असमानता को भी पोषित करती थी। बाबा साहब ने इस व्यवस्था को समूल नष्ट करने का संकल्प लिया। उनकी पुस्तक *Annihilation of Caste* इस दिशा में एक क्रांतिकारी दस्तावेज है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जहाँ भेदभाव होता है, वहाँ सामाजिक विखंडन स्वाभाविक है। और इस विखंडन के परिणाम भयावह होते हैं—समाज का नैतिक पतन, आर्थिक असंतुलन और मानवीय एकता का क्षय। आज भी जाति व्यवस्था का पूर्ण उन्मूलन बाकी है, जो हमें बाबा साहब के अधूरे सपने की याद दिलाता है।
बचपन का दर्द और संबल की कमी
बाबा साहब ने अपने बचपन में जातिगत भेदभाव का दारुण दुख सहा। स्कूल में पानी के मटके से दूर रखा जाना, सहपाठियों का तिरस्कार, और सामाजिक बहिष्कार—ये सभी अनुभव उनके मन में गहरे तक उतर गए। यह दुख मेरे लिए भी व्यक्तिगत रूप से मर्मस्पर्शी है। मैंने भी स्कूल के दिनों में पोलियो के कारण बैसाखियों पर चलते हुए सहपाठियों के ताने सुने—*“लंगड़े लूले बड़े उपाई, आँख फोड़ बंदूक चलाई”*। यह बुलिंग मेरे लिए केवल शब्द नहीं, बल्कि उस सामाजिक मानसिकता का प्रतीक थी जो “अलग” को स्वीकार नहीं करती। लेकिन मुझे मेरे परिवार, शिक्षकों और बदलती सामाजिक व्यवस्था ने संबल दिया। दुख इस बात का है कि बाबा साहब को उनके बचपन में ऐसा संबल नहीं मिल सका। फिर भी, उन्होंने इस दर्द को अपनी शक्ति बनाया और सामाजिक विषमता के जहर को अमृत में बदल दिया।
गांधी और आंबेडकर: असहमति का
बाबा साहब और महात्मा गांधी के बीच सामाजिक सुधार को लेकर गहरी वैचारिक असहमति थी। गांधी जी जहाँ हिंदू धर्म के भीतर सुधार की बात करते थे, वहीं बाबा साहब जाति व्यवस्था को हिंदू धर्म की जड़ मानते थे और इसके उन्मूलन को आवश्यक समझते थे। यह असहमति केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि दार्शनिक थी। गांधी जी की असहमति को मैं तभी स्वीकार करता, यदि वे समता-आधारित समाज की स्थापना में पूर्णतः सफल हो पाते। लेकिन इतिहास गवाह है कि बाबा साहब का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और संरचनात्मक परिवर्तन पर केंद्रित था। पूना पैक्ट इसका एक उदाहरण है, जहाँ बाबा साहब ने दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया।
सर्वांगीण विकास के प्रणेता
जो व्यक्ति बाबा साहब को समझता है, वह व्यापक दृष्टिकोण का महत्व जानता है। वे केवल दलितों के मसीहा नहीं थे, बल्कि सर्वांगीण विकास के प्रबल समर्थक थे। शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक समानता और संवैधानिक अधिकार—उनका हर प्रयास समाज के हर वर्ग को सशक्त करने के लिए था। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाकर यह साबित किया कि धर्म भी तर्क और समता का प्रतीक हो सकता है। उनकी यह सोच आज भी हमें प्रेरित करती है कि हमें अपने दुख को शक्ति में बदलना है, न कि उसमें डूब जाना है।
**निष्कर्ष: मेरे लिए बाबा साहब**
मेरे लिए बाबा साहब केवल एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं, बल्कि एक प्रेरणा हैं। मैं ईश्वर से कुछ नहीं माँगता, क्योंकि बाबा साहब ने मुझे सिखाया कि अपनी नियति हम स्वयं लिखते हैं। उनका जीवन इस बात का जीवंत प्रमाण है कि सबसे कठिन परिस्थितियों में भी मानव गरिमा और समता का झंडा बुलंद किया जा सकता है। आज हमें उनके सपने को साकार करने की आवश्यकता है—एक ऐसा समाज, जहाँ न जाति का भेद हो, न शारीरिक अक्षमता का तिरस्कार, और न ही किसी की पहचान उसकी गरिमा पर आँच लाए। बाबा साहब का चिंतन हमें यही संदेश देता है—विषमता को चुनौती दो, और समता को अपनाओ।
गिरीश बिल्लौरे मुकुल
girishbillore@gmail.com
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