भारतीय अभिभावक अब बच्चों की शिक्षण प्रशिक्षण व्यवस्था को लेकर चिंतित और जागरूक हो चुके हैं । पर इन अभिभावकों की चिंता और जागरूकता केवल नामीगिरामी शिक्षण संस्थानों तक सीमित है।
औसत एवम उच्च मध्य वर्गीय परिवारो की संपदा उनकी संतानों द्वारा अर्जित ज्ञान है।
और उनका ज्ञान बिना शिक्षा दीक्षा के संभव नहीं है।
भारतीय सामाजिक संस्कृति में शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण मिशन है।
अभिभावकों को अच्छे शिक्षण संस्थानों की तलाश होती है वहीं दूसरी ओर शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को ग्राहकों का इंतजार होता है। उनके ग्राहक ये अभिभावक ही तो होते हैं । ये अभिभावक तथा कथित अच्छे शिक्षण संस्थानों की तलाश में रकम लेकर भटकते हैं । जिसका लाभ व्यवसायिक शैक्षिक संस्थान उठते हैं।
मध्यवर्ग का अभिभावक जिस अच्छे शिक्षण संस्थान की तलाश में होता है उसके अच्छे होने का मतलब क्या है अभिभावक को नहीं मालूम होता है।
अखबारों के फ्रंट पेज पर विज्ञापन देने वाले शैक्षणिक संस्थान, यूट्यूब अथवा अन्य सोशल मीडिया पर चमकने वाले चेहरों से अच्छे संस्थानों का अंदाज लगाया जाता है।
जबकि प्रत्येक शिक्षण संस्थान के लिए मापदंड सुनिश्चित होने चाहिए। सुविधाओं से लेकर शुल्क तक शिक्षण संस्थाओं का स्तर निर्धारण करने के लिए कोई न कोई मार्गदर्शी सिद्धांत तय होने चाहिए।
सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ! शैक्षिक संस्थानों पर किन-किन का आधिपत्य है यह सभी को मालूम है।
शांति निकेतन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण और उसके प्राथमिक संचालन में टैगोर तथा पंडित मदन मोहन मालवीय को कितना कष्ट भोगना पड़ा था इस तथ्य को हम सब जानते हैं।
हम लोग यह भी जानते हैं कि भारतीय प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में तक्षशिला नालंदा और विक्रमशिला के अलावा गुरुकुलो में आदर्श रूप से शिक्षा दी जाती थी।
चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिकता का प्रभाव इन क्षेत्रों को स्तर प्रदान नहीं करता बल्कि सोशल एनवायरमेंट को प्रदूषित करता है।
फिर भी अगर शिक्षण संस्थान उत्पादन केंद्र बन ही चुके हैं तो अब इनके लिए एक नियामक प्राधिकरण अथवा आयोग का गठन अब अनिवार्य हो गया है।
जबलपुर कलेक्टर ने शिक्षा व्यवस्था का परीक्षण किया तो शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी सच्चाईयां अनफोल्ड होने लगीं हैं।
भारत के मध्य प्रदेश में जबलपुर के जिला प्रशासन ने अद्भुत पहल की और निजी क्षेत्र शिक्षण संस्थानों के अनियंत्रित फीस वसूलने, पाठ्य पुस्तक स्टेशनरी एवं सहायक सामग्री महंगे दामों पर बच्चों को बेचने के मामलों पर हमला बोल दिया है।
जबलपुर में कोई भी स्कूल दबाव डालकर गार्जियन को स्कूल द्वारा चिन्हित दुकान से उपरोक्त सामग्री खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
इसी तरह जिला प्रशासन जबलपुर ने मध्यवर्गीय परिवारों को राहत देते हुए स्कूलों द्वारा जहां एक ओर हर साल पुस्तक बदलकर नई पुस्तक खरीदने की बाध्यता पर भी अंकुश लगाया गया वहीं दूसरी ओर शिक्षण शुल्क के औचित्य का निर्धारण करते हुए अतिरिक्त रूप से वसूली गई फीस भी अभिभावकों को वापस करने के आदेश भी स्कूल प्रबंधन को दिए हैं।
वास्तव में भारतीय शिक्षा व्यवस्था बहुत महंगी नहीं है परंतु, उसे एक बिजनेस मॉडल के रूप में चलाने का काम व्यापारियों ने किया है।
जबलपुर कलेक्टर श्री दीपक सक्सेना की पैनी निगाह ने हर उस बिंदु को समझा परखा और नियंत्रित किया जो भारत के मॉडल एजुकेशन सिस्टम को बिजनेस मॉडल होने से बचाने का मुहिम शुरू कर दिया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि दिल्ली की दुर्घटना का इस मामले से क्या लेना देना?
बिल्कुल लेना-देना है, जबलपुर और दिल्ली दोनों ही भारत में है, एडमिनिस्ट्रेशन चाहे तो व्यवस्था में जबरदस्त बदलाव ला सकता है। इलाज से बेहतर ऐतियात होता है
प्रशासन और सरकार के अलावा जनता भी अगर चाहे तो दिल्ली जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कभी नहीं हो सकती।
दिल्ली में हुए हादसे का जवाबदार कोई एक पक्ष नहीं है। केवल कोचिंग संस्थानों को टारगेट पर लेना स्वाभाविक है परंतु, कलेक्टिव रिस्पांसिबिलिटी का विश्लेषण करना भी जरूरी है।
हां यह सत्य है कि दुर्घटनाओं सीखा जाता है परंतु दुर्घटनाएं न हो इसके लिए सुरक्षा प्रबंधन पर शुरू से ध्यान देना चाहिए।
उदाहरण के तौर पर ट्यूबवेल के लिए खोदे गए गड्ढे बिना किसी कैपिंग के खाली छोड़ दिए जाते हैं। इन्हीं बोरवेल्स में कई बच्चे कई बार गिर चुके हैं, परंतु हम हैं कि बोरवेल की ओर ध्यान नहीं देते।
मध्य प्रदेश एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहां पर खुले बोरवेल की पड़ताल करने के निर्देश स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने दिए हैं।
बोरवेल संबंधी निर्देशों का उल्लेख करने का आशय यह है कि हमें सरकार, प्रशासन, अथवा समुदाय के रूप में नागरिक सुरक्षा के मुद्दों पर हर स्तर पर सतर्कता बरतने की जरूरत है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो अब भारत को विश्व गुरु बनने से पहले अपनी आंतरिक शैक्षणिक व्यवस्था को सुधारना जरूरी है।
( गिरीश बिल्लोरे "मुकुल")
औसत एवम उच्च मध्य वर्गीय परिवारो की संपदा उनकी संतानों द्वारा अर्जित ज्ञान है।
और उनका ज्ञान बिना शिक्षा दीक्षा के संभव नहीं है।
भारतीय सामाजिक संस्कृति में शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण मिशन है।
अभिभावकों को अच्छे शिक्षण संस्थानों की तलाश होती है वहीं दूसरी ओर शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को ग्राहकों का इंतजार होता है। उनके ग्राहक ये अभिभावक ही तो होते हैं । ये अभिभावक तथा कथित अच्छे शिक्षण संस्थानों की तलाश में रकम लेकर भटकते हैं । जिसका लाभ व्यवसायिक शैक्षिक संस्थान उठते हैं।
मध्यवर्ग का अभिभावक जिस अच्छे शिक्षण संस्थान की तलाश में होता है उसके अच्छे होने का मतलब क्या है अभिभावक को नहीं मालूम होता है।
अखबारों के फ्रंट पेज पर विज्ञापन देने वाले शैक्षणिक संस्थान, यूट्यूब अथवा अन्य सोशल मीडिया पर चमकने वाले चेहरों से अच्छे संस्थानों का अंदाज लगाया जाता है।
जबकि प्रत्येक शिक्षण संस्थान के लिए मापदंड सुनिश्चित होने चाहिए। सुविधाओं से लेकर शुल्क तक शिक्षण संस्थाओं का स्तर निर्धारण करने के लिए कोई न कोई मार्गदर्शी सिद्धांत तय होने चाहिए।
सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ! शैक्षिक संस्थानों पर किन-किन का आधिपत्य है यह सभी को मालूम है।
शांति निकेतन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण और उसके प्राथमिक संचालन में टैगोर तथा पंडित मदन मोहन मालवीय को कितना कष्ट भोगना पड़ा था इस तथ्य को हम सब जानते हैं।
हम लोग यह भी जानते हैं कि भारतीय प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में तक्षशिला नालंदा और विक्रमशिला के अलावा गुरुकुलो में आदर्श रूप से शिक्षा दी जाती थी।
चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिकता का प्रभाव इन क्षेत्रों को स्तर प्रदान नहीं करता बल्कि सोशल एनवायरमेंट को प्रदूषित करता है।
फिर भी अगर शिक्षण संस्थान उत्पादन केंद्र बन ही चुके हैं तो अब इनके लिए एक नियामक प्राधिकरण अथवा आयोग का गठन अब अनिवार्य हो गया है।
जबलपुर कलेक्टर ने शिक्षा व्यवस्था का परीक्षण किया तो शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी सच्चाईयां अनफोल्ड होने लगीं हैं।
भारत के मध्य प्रदेश में जबलपुर के जिला प्रशासन ने अद्भुत पहल की और निजी क्षेत्र शिक्षण संस्थानों के अनियंत्रित फीस वसूलने, पाठ्य पुस्तक स्टेशनरी एवं सहायक सामग्री महंगे दामों पर बच्चों को बेचने के मामलों पर हमला बोल दिया है।
जबलपुर में कोई भी स्कूल दबाव डालकर गार्जियन को स्कूल द्वारा चिन्हित दुकान से उपरोक्त सामग्री खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
इसी तरह जिला प्रशासन जबलपुर ने मध्यवर्गीय परिवारों को राहत देते हुए स्कूलों द्वारा जहां एक ओर हर साल पुस्तक बदलकर नई पुस्तक खरीदने की बाध्यता पर भी अंकुश लगाया गया वहीं दूसरी ओर शिक्षण शुल्क के औचित्य का निर्धारण करते हुए अतिरिक्त रूप से वसूली गई फीस भी अभिभावकों को वापस करने के आदेश भी स्कूल प्रबंधन को दिए हैं।
वास्तव में भारतीय शिक्षा व्यवस्था बहुत महंगी नहीं है परंतु, उसे एक बिजनेस मॉडल के रूप में चलाने का काम व्यापारियों ने किया है।
जबलपुर कलेक्टर श्री दीपक सक्सेना की पैनी निगाह ने हर उस बिंदु को समझा परखा और नियंत्रित किया जो भारत के मॉडल एजुकेशन सिस्टम को बिजनेस मॉडल होने से बचाने का मुहिम शुरू कर दिया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि दिल्ली की दुर्घटना का इस मामले से क्या लेना देना?
बिल्कुल लेना-देना है, जबलपुर और दिल्ली दोनों ही भारत में है, एडमिनिस्ट्रेशन चाहे तो व्यवस्था में जबरदस्त बदलाव ला सकता है। इलाज से बेहतर ऐतियात होता है
प्रशासन और सरकार के अलावा जनता भी अगर चाहे तो दिल्ली जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति कभी नहीं हो सकती।
दिल्ली में हुए हादसे का जवाबदार कोई एक पक्ष नहीं है। केवल कोचिंग संस्थानों को टारगेट पर लेना स्वाभाविक है परंतु, कलेक्टिव रिस्पांसिबिलिटी का विश्लेषण करना भी जरूरी है।
हां यह सत्य है कि दुर्घटनाओं सीखा जाता है परंतु दुर्घटनाएं न हो इसके लिए सुरक्षा प्रबंधन पर शुरू से ध्यान देना चाहिए।
उदाहरण के तौर पर ट्यूबवेल के लिए खोदे गए गड्ढे बिना किसी कैपिंग के खाली छोड़ दिए जाते हैं। इन्हीं बोरवेल्स में कई बच्चे कई बार गिर चुके हैं, परंतु हम हैं कि बोरवेल की ओर ध्यान नहीं देते।
मध्य प्रदेश एकमात्र ऐसा प्रदेश है जहां पर खुले बोरवेल की पड़ताल करने के निर्देश स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने दिए हैं।
बोरवेल संबंधी निर्देशों का उल्लेख करने का आशय यह है कि हमें सरकार, प्रशासन, अथवा समुदाय के रूप में नागरिक सुरक्षा के मुद्दों पर हर स्तर पर सतर्कता बरतने की जरूरत है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो अब भारत को विश्व गुरु बनने से पहले अपनी आंतरिक शैक्षणिक व्यवस्था को सुधारना जरूरी है।
( गिरीश बिल्लोरे "मुकुल")
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