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https://youtu.be/okBsbgXv_l8 https://youtu.be/GdQDQIEZDKM https://youtu.be/WPRcuecDqxI https://youtu.be/AnQA20LQPDE https://youtu.be/aXFO15hSZfY https://youtu.be/SX3HIRjJtLk --- #पुनर्जन्म #प्राण #प्राणी #जीव #पॉडकास्ट Disclaimer: The voice used in this video is cloned voice of Dr. Shipra Sullere with her permission.This use is permitted by YouTube.This cloned voice is not used for any other purpose. --- Mysteries of the soul | आत्मा होती ही नहीं ? आलेख : गिरीश बिल्लौरे मुकुल स्वर : डॉ. शिप्रा सुल्लेरे पार्श्व संगीत : अनुष्का सोनी तकनीकी सहयोग: सिद्धार्थ गौतममन की बात Mind Matter
प्रेम का सन्देश देता ब्लॉग
Wikipedia
गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024
Mysteries of the soul | आत्मा होती ही नहीं ?
सोमवार, 7 अक्तूबर 2024
मेरे भगवान भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव
यही कारण है कि यह कार्य करने योग्य है। क्योंकि आसान कार्य तो कोई भी कर सकता है, पर कठिन कार्य बिरले ही कर पाते हैं।
It is difficult to establish unity in diversity. Still, this is the need of the present era.
Girish believes that Bhagat Singh, Rajguru and Sukhdev are no less than God for him. Let us know in his own words…
मैं सरदार भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को अपना भगवान मानता हूं, वे न सिर्फ मेरे भगवान हैं बल्कि आप सबके भी भगवान हैं।
आप सोच रहे होंगे कि - "एक नास्तिक को जो भगवान नाम के तत्व पर विश्वास नहीं रखता था कोई उसे भगवान कैसे कह सकता है ?"
सच्चा नास्तिक ही भगवान है ।
यह सिद्धांत मैं पूरे दावे के साथ स्थापित करना चाहता हूं। क्योंकि जो स्वयं ईश्वर होता है, वह अपने आप को ईश्वर घोषित करने का कोई दावा नहीं करता।
जो पूर्ण है वह ही ईश्वर है, जो आश्रित हैं वही तो हम हैं।
हम विनय करते हैं आग्रह करते हैं निवेदन करते हैं? ईश्वर अर्थात मुक्तिदाता आग्रह या निवेदन नहीं करता।
जो भगवान होता है वह अपने भगवान होने पर भी विश्वास नहीं करता था ।
लोग मुझसे पूछेंगे ही - "भाई , इतना करीब से कैसे जानते हो भगवान को ?
कभी मिले हो क्या ?
जी हां बहुत करीब से जानता हूं, जो संरक्षक है, जो दाता है, जो प्रबंधक है जो मुक्ति दाता है वही तो भगवान है। और वह भगवान किसी को अपने भगवान होने का विश्वास नहीं दिलाता और न ही खुद विश्वास करता है।
ईश्वर का अंतर्संबंध हर व्यक्ति से होता है।
वो सभी को लेकर चलता है सबके लिए सोचता है वही तो है सच्चा भगवान है मेरी नजर में। आपकी नज़र में कैसा दिखता है मुझे इस बात से सरोकार नहीं।
उसका अस्तित्व भौतिक न होने के कारण विज्ञान की परिधि से बाहर है, विज्ञान केवल उन बातों की पड़ताल करता है... जो उसकी सीमारेखा में हैं।
ये मेरी स्वरंत्रता के अधिकार में है कि मुझे किसे ईश्वर मानना है किसे नहीं ।
बुद्ध ने कह दिया था कि अपना दीपक खुद बन जाओ।
यह कह कर बुद्ध सामाजिक जड़त्व को हटाना चाहते थे। कालांतर में कुछ लोगों ने नए किस्म की जड़ता से अनुराग स्थापित कर लिया।
बुद्ध ने जात-पात के वर्गीकरण का विरोध किया। बुद्ध ने व्यक्तिश: आज़ादी का आग्रह किया था। बुद्ध वर्गीकरण एवम वर्ग - संघर्ष का विरोध करते थे।
वे जात-पात के शिकंजे से मुक्ति दिलाने आए थे। आप उनको भगवान कह सकते हो तो हम भी भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को भगवान क्यों नहीं मान सकते ?
बुद्ध के बाद , जातिवाद का ध्रुवीकरण हो गया। आयातित विचारधारा के लोग वर्गीकरण करते हैं,
वर्गों में वैमनष्यता पर नैरेटिव स्थापित करते हुए वर्ग संघर्ष पैदा करते हैं।
मुझे प्रतीत हो रहा है कि महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों के साथ भी ऐसा ही खिलवाड़ किया है।
अंग्रेजों के आते-आते व्यवस्था और जटिल हो गई। सनातन का एकात्मक भाव तिरोहित हो गया।
तब कई संकल्प पुत्रों ने जन्म लिया ,
वे न केवल भारत माता को दरिंदे अंग्रेजों से मुक्त करने आए थे वरन सामाजिक एकात्मता स्थापित करने आए थे।
मां ने न जाने कितनी बार, भगत सिंह के दिए अरदास की होगी।
भगत सिंह जानते थे कि - उनका लक्ष्य या क्या है, उन्हें क्या करना है, वे अपनी जिंदगी का मुस्तकबिल सुनिश्चित कर चुके थे।
फांसी पर अपने मित्रों के साथ चढ़ने के पहले लाहौर जेल में की घटना ने मन को करुणा भाव से भर दिया। घटना कुछ इस प्रकार है
लाहौर जेल में भगत सिंह की बैरक की साफ-सफाई करने वाले भंगी का नाम बोघा था। भगत सिंह उसको बेबे (मां) कहकर बुलाते थे।
जब कोई पूछता कि "भगत सिंह ये भंगी बोघा तेरी बेबे कैसे हुआ?"
तब भगत सिंह कहता, "मेरा मल-मूत्र या तो मेरी बेबे ने उठाया, या इस पुरूष बोघे ने। बोघे में मैं अपनी बेबे (मां) देखता हूं। ये मेरी बेबे ही है।"
यह कहकर भगत सिंह बोघे को अपनी बाहों में भर लेता।
भगत सिंह जी अक्सर बोघा से कहते, "बेबे मैं तेरे हाथों की रोटी खाना चाहता हूँ।"
पर बोघा अपनी जाति को याद करके झिझक जाता और कहता, "भगत सिंह तू ऊँची जात का सरदार, और मैं एक अदना सा भंगी, भगतां तू रहने दे, ज़िद न कर।"
सरदार भगत सिंह भी अपनी ज़िद के पक्के थे, फांसी से कुछ दिन पहले जिद करके उन्होंने बोघे को कहा," बेबे अब तो हम चंद दिन के मेहमान हैं, अब तो इच्छा पूरी कर दे!"
बोघे की आँखों में आंसू बह चले। रोते-रोते उसने खुद अपने हाथों से उस वीर शहीद ए आज़म के लिए रोटियां बनाई, और अपने हाथों से ही खिलाई।
भगत सिह के मुंह में रोटी का गराई डालते ही बोघे की रुलाई फूट पड़ी। "ओए भगतां, ओए मेरे शेरा, धन्य है तेरी मां, जिसने तुझे जन्म दिया।"
और फिर भगत सिंह ने उसे अपने अंकपाश में भर लिया।
भगत सिंह की इच्छा थी कि भारत समता मूलक समाज के स्वरूप में स्थाई रूप से विकसित हो।
मेरे देशवासियों , ध्यान रहे अगर हम अपने राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए, सामाजिक वर्गीकरण और भेदभाव को बढ़ावा देंगे, तो हम वीर शहीदों- भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु के विरुद्ध गंभीर अपराधी साबित होंगे।
जो राजनीतिज्ञ, व्यवसाई अथवा भारत का कोई भी नागरिक इस चेतावनी को सुन रहा है उसे अब अलर्ट रहने की जरूरत है।
@Youtube
Way after dad end. | ईश्वर कठोर नहीं होता |
🔗
https://youtu.be/CkrVepCLsXc?si=lfd28JFLcitCLiHY
मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024
ईश्वर न तो धोखेबाज है न ही निष्ठुर
मंगलवार, 17 सितंबर 2024
पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ की अभिव्यक्ति के 15 दिन "श्राद्ध पक्ष" और तर्क वादियों का चिंतन..!
आप
जानते ही हैं कि सनातनियों के लिए अति महत्वपूर्ण पितृपक्ष 18
सितंबर 2024 से प्रारंभ हो
चुका है। पितृपक्ष सनातनियों के लिए बेहद पावन और भावात्मक होता है
पूरे
15 दिन की अवधि में परिवार में
स्वच्छता एवं व्यक्तिगत मानसिक शुद्धता का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। यह
परंपरा प्राचीन काल से जारी है।
. इससे
पहले कि हम श्राद्ध पक्ष के बारे में चर्चा करें आइये हम मनुष्य के जीवन एवं उसकी आत्मा पर संक्षिप्त
चर्चा करते हैं।
6. मानव जीव के अस्तित्व को वैज्ञानिकों एवम तर्क वादियों से स्वीकृति नहीं है।
7. तर्क
वादियों एवं वैज्ञानिकों के विचार से न तो जीवात्मा होती है और न ही
पुनर्जन्म है । कर्म फल के सिद्धांत से भी वे सहमत नहीं होते। कुछ विद्वान
तर्कवादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते अवश्य हैं
जो
व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा को नहीं मानते उन्हें हम नास्तिक कहते हैं। जाबाली ,
चार्वाक
जैसी नास्तिक विचार परंपराएं जैन दर्शन,
बौद्ध-दर्शन इनमे सर्वोपरि हैं.
आस्तिक
परंपराएं और मान्यताएं जीव के अस्तित्व को स्वीकृति देतीं है। हम सब भी मानते हैं कि शरीर के मर जाने के बावजूद भी जीव अस्तित्व में रहता है।
10. जिनने गीता पढ़ी है या उसके बारे में कुछ भी जानकारी
रखते हैं वे यह जरुर जानते हैं कि युगपुरुष कर्मयोगी श्री
कृष्ण ने आत्मा अर्थात जीव के बारे में क्या कहा था ?
11. आत्मा जो अजर है अमर है ,
शरीर
से मुक्त होते ही वह किसी न किसी रूप में
ब्रह्मांड में उपस्थित है। आत्मा पर किसी भी नकारात्मक या सकारात्य्मक किसी भी स्थिति
का प्रभाव नहीं होता।
हम
सब जानते हैं कि- आत्मा जब शरीर में होती
है तो शरीर को जीवंतता देती है । विश्व के अधिकांश मतवालंबी इस तथ्य को मानते हैं। अब्राहमिक
संप्रदायों में पुनर्जन्म का कॉन्सेप्ट तो नहीं है परंतु जीव द्वारा किये गए
कार्यों के अंतिम के गुण-दोष के आधार पर निर्णय ईश्वर द्वारा निर्णय लेने की अवधारणा
अवश्य है । प्राणी को स्वर्ग भेजना है या नरक यह अंतिम निर्णय के वक्त ईश्वर ही
करेंगें.
श्राद्ध्
आयोजन के लिए क्या निर्धारित है..?
नीति
शास्त्र कहता है कि - जो आपके प्रति कुछ भी सकारात्मक कार्य करें तो उनके प्रति
हमें कृतज्ञापित करनी चाहिए।
भारतीय
जीवन दर्शन एवं सामाजिक परंपराओं के अनुसार हममें हर प्राणी के प्रति कृतज्ञता की
अभिव्यक्ति करनी चाहिए। यह धार्मिक आज्ञा मात्र नहीं है। बल्कि यह एक सामाजिकता का
भी उदाहरण है।
आपसे
निवेदन है कि आप इस पॉडकास्ट में अंत तक बने रहिए हम आपको श्राद्ध पक्ष के रहस्य
से परिचित करते हुए तर्कवादियों विचारों का सतर्कता से तथ्यात्मक खंडन कर रहें हैं -
सनातन परंपराओं के अनुसार हम श्राद्ध पक्ष के संबंध विचार करते हैं तो हम
पाते हैं की-
·
पूर्वजों के स्मृति दिवस
मनाने के लिए एक अवधि निर्धारित है. यह अवधि 15 दिवस में पूर्ण होती है. हिन्दी
कैलेण्डर के अनुसार गणेशोत्सव के समापन के पश्चात प्रारम्भ प्रथम दिवस से अंतिम
दिवस तक अर्थात “पितृ-मोक्ष अमावश्या” तक की अवधि में जिस तिथि में पूर्वज का
देहावसान होता है उस दिन से “पितृ- मोक्ष अमावश्या” तक पिता या माता की स्मृति में जल अर्पण किया जाता है. जिसे
तर्पण कहते हैं , इस प्रक्रिया में अलग अलग स्थान के अनुसार अलग अलग तरीके अपनाए
जाते हैं.
·
स्मृति दिवस पर तर्पण करते
समय पिता या माता के अतिरिक्त देवताओं,
ऋषियों, भीष्म-पितामह,
के अलावा श्राद्ध कर्ता द्वारा अपने कुटुंब के , सभी पूर्वजों,
समकालीन भाइयों, बहनों , चाचाओं,
मित्रों, ज्ञात या अज्ञात लोगों,
तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्मान दिया जाता है जो अब इस दुनियां में नहीं हैं.
पितृपक्ष का
उद्देश्य क्या है
·
दिवंगतों को मुख्य रूप से केवल
पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करना है।
·
"15 दिनों तक अपने
दिवंगत पूर्वजों का स्मरण करने की
प्राथमिक शर्त पुत्र तथा पुत्र वधू तथा बच्चों को बंधनकारी होता है कि श्राद्ध
पक्ष में घर को साफ सुथरा एवं आसपास के वातावरण मैं स्वच्छता बनाए रखना ।
·
आप सोचते होंगे कि श्राद्ध
पक्ष में क्या केवल उनका स्मरण किया जाना है जो आपके रिश्तेदार हैं ऐसा नहीं है।आप
जब तर्पण की संपूर्ण प्रक्रिया देखते हैं तब आपको पता चलता है कि - देवता,
ऋषि,
सहित
उन सभी के प्रति कृतज्ञता व्यक्ति की जाती है जो इस पृथ्वी पर मानव स्वरूप में
जन्म लेते हैं और मरते हैं। आपने सुना होगा जब कभी तर्पण किया जाता है तो अपने
निकटतम रक्त संबंधियों से लेकर रिश्तेदारों तक के नाम का उल्लेख किया जाता है।
इससे स्पष्ट होता है कि हम जिनका भी सम्मान करते हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त
करते हैं और प्रतीक स्वरूप उनके लिए जल अर्पित करते हैं।
·
इसके अलावा गृहस्थ साधक
प्रत्येक प्राणी मात्र के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। तर्पण करते वक्त पुरोहित
ऋषि मुनियों के साथ-साथ भीष्म पितामह सहित ज्ञात अज्ञात सभी जीवों उल्लेख करते हुए
उनका सम्मान व्यक्त करते हैं।
श्राद्ध का प्रभाव
·
श्राद्ध प्रक्रिया का पालन
करने से हमारे मस्तिष्क में कृतज्ञता की भावना
मजबूत होती है। हम कृतज्ञता उन पर व्यक्त करते हैं जिन पर श्रद्धा और स्नेह
होता है।
·
श्राद्ध जैसे वार्षिक
रिचुअल की पुनर्रावृत्ति से मनो वैज्ञानिक तौर पर हम पवित्रता एवं कृतज्ञता के भाव
को अपनी आदत में आत्मसात कर सकते हैं।
क्या श्राद्ध में बहुत से ब्राह्मण को खीर खिलाने की बाध्यता है.?
·
सनातन धर्म में धार्मिक
रिचुअल्स बाध्यता के साथ पालन करने का कोई आदेश नहीं है. भारत एक कृषि-प्रधान देश
है जहां गोवंश से दूध,
खेतों से चावल आदि विपुल मात्रा में उपलब्ध होता है. जहां चावल की उपज नहीं होती
वहां स्थानीय अनाज से बने खाद्य पदार्थ खिलाने का प्रचलन है.
·
श्राद्ध का संबंध पूर्वजों
के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति पर आधारित है. न कि किसी ब्राह्मण या ब्राह्मणों
को भोजन कराने मात्र से ,
·
श्राद्ध में केवल चार पत्तल/थालियां परोसी जाती हैं. एक पुरोहित के
लिए, दूसरी गाय के लिए,
तीसरी चींटी/कीट पतंगों के लिए,
चौथी कौए के लिए.
·
पुरोहित आपको मार्गदर्शन
देकर प्रक्रिया पूर्ण कराता है,
गाय प्राचीन ग्रामीण भारत से अब तक जीवन
का आधार है, चींटी /पतंगे तथा
कौआ आदि इको-सिस्टम का हिस्सा हैं,
·
क्या श्राद्ध में
बड़ी संख्या में भोजन कराना चाहिए
·
श्राद्ध करना ही बाध्यता
नहीं है तो यह प्रश्न बेमानी है. प्रश्न केवल इतना है कि यदि आप अपने दिवंगत पूर्वजों/ सहयोगियों , तथा सम्पूर्ण मानवता के
प्रति सम्मान एवं करुणा भाव रखते हैं तो
उनको याद करना चाहेंगे.
·
क्या श्राद्ध कुरीति
है...
·
सत्यार्थ-प्रकाश के 11वें
सम्मुल्लास में स्वामी दयानंद जी लिखा है कि –“पुरखों को दिया गया पानी तर्पण
भोजनादि उन तक नहीं पहुंचता. !” भौतिक रूप से इस तथ्य को नहीं नकारना चाहिए . इससे
मैं सहमत हूँ.
·
आचार्य रजनीश जैसे तर्क
वादी "श्राद्ध पक्ष को पुरोहितों द्वारा बनाई गई रूढ़िवादी परंपरा मानते हैं”
तर्कशास्त्रियों की दृष्टि उतना ही देखती है
जितना वह देख पाती है। उन्हौने इसके पीछे के मनोविज्ञान को शायद ही समझा हो.
वास्तव में श्राद्ध रूढ़िवाद नहीं है बल्कि एक सोशल इवेंट
है। जो एक व्यक्तिगत-अभ्यास एवं सामूहिक होने पर सोशल इवेंट है.
जिसमें में हम अपने जहां एक ओर लौकिक जीवन के कर्तव्यों
का निर्वहन करते नजर आते हैं, वहीँ दूसरी ओर श्रद्धा , कृतज्ञता एवं आभारी होने की
भावना से स्वयम को भरा महसूस करते हैं. ।
श्राद्ध पक्ष में पंडितों को भोजन करना उद्देश्य मात्र
नहीं है, आर्थिक रूप से गरीब
लोग के लिए कर्ज लेकर श्राद्ध करने की बाध्यता नहीं है।
सामाजिक विज्ञान सामूहिक भावात्मक विकास के लिए प्रेरित
करता है।
सामाजिक विज्ञान
नीति विज्ञान और मनोविज्ञान हमेशा जन्म से
लेकर मृत्यु तक की गतिविधियों का अध्ययन करता है तथा मार्गदर्शन प्रदान करता है।
हमारा सामाजिक जीवन
मानव प्रजाति की राष्ट्र,
समाज, कुटुंब,
परिवार
एवं वैयक्तिक उत्कर्ष में सहायक होता है.
पूर्वजों ने हमें
यही सिखाया। इसके परिणाम भी सुखद है।
हम ऐसे ही बदलाव
लाने के लिए अपने पूर्वजों को धन्यवाद कहते हैं। धन्यवाद कहने की इस प्रक्रिया को
श्राद्ध पक्ष में भली भांति दोहराते हैं .
इस प्रकार हम धन्यवाद
का प्रकटीकरण करके कल्चरल निरंतरता को गतिमान बनाए रखते हैं ।
पृथ्वी के प्रत्येक मानव समूह की नई पीढ़ी
ने अपने अपने तरीके से पूर्वजों के प्रति
कृतज्ञता करना प्रारंभ कर दिया।
अपने पूर्वजों के
प्रति श्रद्धा व्यक्त करना कैसे कोई पाखंड हो सकता है । अब आप ही बताइए यह
अवैज्ञानिक कैसे हैं?
तर्क वादियों के
पुरोधा प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन ने पितृपक्ष और श्राद्ध पूरी ताकत से खंडन किया। खंडन करना उनकी अपनी जगह वैचारिक प्रक्रिया है लेकिन उन्होंने
इसका उपहास भी किया है बिना यह अनुमान लगाए कि श्राद्ध जैसे रिचुअल के पीछे का सामाजिक,
मनोवैज्ञानिक,
आधार
क्या है ?
विगत कई दिनों से उनके अनुसरण करने वाले उनका जन्म दिवस उनके
स्मृति दिवस पर महोत्सवों की कवायद भी कर रहे हैं।
जैसे मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले किसी व्यक्ति की मूर्तियां
बना बना कर उनका पूजन किया जाए तब कैसा लगेगा।
पैगंबर मोहम्मद ने
मूर्ति पूजा को मान्यता नहीं दी उनकी कोई मूर्ति इस्लाम मानने वाले कभी नहीं रखते
न ही वे उसकी कल्पना करते।
प्रोफेसर
रजनीश को यह भ्रम था कि उनकी शिक्षा के
बाद श्राद्ध बंद हो जाएंगे। ऐसा कुछ हुआ
नहीं, इसके विपरीत आप
उनका ही श्राद्ध मनाया जाने लगा।
फर्क जरा सा इतना
है कि -"अब सरकारी सहायता मांग कर, एवं
स्वयं का धन एकत्र कर जनता द्वारा उनकी याद में श्राद्ध मनाने का प्रयास होने
लगा!"
कम्युनों में ओशो का जन्मदिन, स्मृति दिवस मनाया जाता है। यूं तो दुनिया भर
में लोगों के स्मृति दिवस मनाए जाते हैं ,
इसमें बुराई क्या है । पंडितों को खीर
खिलाने के खिलाफ बोलने वाले अकूत संपदा के स्वामी 99 रोल्स-रोयस के मालिक आचार्य रजनीश के डिवोटी मुझे
तरंग आडिटोरियम के आसपास आयोजित गतिविधियों में तरंगित अवास्त्य्हा के पीछे अद्भुत अवस्था में मिले थे , कदाचित
सनातनी श्राद्ध में ऐसा नहीं होता .
जब कोई श्राद्ध पक्ष सवाल उठाता है तो मुझे लगता है कि वह महापुरुषों के
स्मृति दिवसों पर भी सवाल उठाता ही होगा.
हिंदुत्व पर सवाल
उठाने वालों से एक सवाल इस तरह पूछना चाहता हूँ....
वक्त
ज़ाया न कर, मुझ को आजमाने में
।
बहुत
से लोग हैं , मेरी
तरह ज़माने में ।।
भेज
न मुझको,सवालों पे सवालों की रसद
भेज
हों उतने ही जितने, तेरे बारदाने में ।।
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
अब अष्टावक्रों पर हँसने का समय नहीं है! संदर्भ #पेरिसओलंपिक2024
ऐसे हजारों उदाहरण विश्व में मौजूद हैं।
भारत में अष्टावक्र की कथा लोकव्यापी है। अद्भुत विद्वान थे अष्टावक्र पर लोग उनकी आकृति को देखकर उन पर हंसते थे। कालांतर में उन्हीं अष्टावक्र के ज्ञान को श्रेष्ठ माना गया।
गुरु रामभद्राचार्य जी अद्भुत मेधावान हैं। महाकवि सूरदास की फिलासफी उनकी पदवालियों से उजागर होती है।
किसी की भी शारीरिक असमानताओं के कारण अंडर एस्टीमेट करना, बॉडी शेमिंग करना , उन पर हंसना, मेंटल डिसेबिलिटी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
जब वैज्ञानिक हॉकिंस के बारे में सोचिए सोचिए जो बोल नहीं सकता वह व्यक्ति यूनिवर्स के बारे में विस्तार से जानकारी देता है। वह व्यक्ति अपने मानसिक और विशेष ज्ञान के सहारे अंतरिक्ष के रहस्य बताता है। और हम हैं कि हर असफलता के पीछे अपने तरीके से बेहूदे कारण प्रस्तुत करने लगते हैं
इस क्रम में आप समझ ही गए होंगे कि आगे हम Paris में आयोजित ओलंपिक 2024 की चर्चा करने जा रहे हैं।
पदक तालिका अनुसार भारत के सामान्य खिलाड़ियों की अपेक्षा भारत के दिव्यांग खिलाड़ियों ने देश का सम्मान बढ़ाया है ।
भारत ने पैरा ओलंपिक के लिए 84 प्रतिभागियों को भेजा गया था।
इनमें से 29 खिलाड़ियों ने मेडल हासिल किए। जो खिलाड़ियों का 34.52 प्रतिशत है। विस्तार से देखें तो पेरिस 2024 पैरालंपिक में अपना दिव्यांगो ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए कुल 29 पदक जीते, जिसमें 7 स्वर्ण, 9 रजत और 13 कांस्य पदक शामिल हैं . पदक सूची में भारत का नाम 18वें स्थान पर है।
जबकि भारत से भेजे गए 117 खिलाड़ियों की ओलंपिक में केबल 6 पदक जीते, अर्थात भेजे गए खिलाड़ियों के सापेक्ष कुल .53 प्रतिशत उपलब्धि रही है।
भारत के सामान्य ओलंपिक खिलाड़ियों ने प्रतियोगिताओं में केवल 6 पदक जीते। पदकों में 1 रजत और 5 कांस्य पदक शामिल हैं ।स्वर्ण पदकों का तो अता-पता ही नहीं है ।
भारत भी पदक तालिका में 71 में स्थान पर नजर आ रहा है।
इससे इस बात की पुष्टि होती है कि भारत के अधिकांश खिलाड़ी खेल अभ्यास पर कम और आंतरिक कलह- सियासी उठा पटक पर पर ज्यादा ध्यान देते रहे हैं।
सामान्य ओलंपिक में जब देश की इज्जत बचाने में सर्वांग संपूर्ण खिलाड़ी पीछे रह गए तो दिव्य अंग वालों ने लाज बचाई। अब आप तय कर सकते हैं कि कि अधूरा कौन है ?
भारत की जनता बेहद प्रभावित है। वहीं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस उपलब्धि पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि - एक गर्व का पल है और दिव्यांग खिलाड़ियों ने अपनी दृढ़ता और संघर्ष के साथ खेल के मैदान में एक नए स्तर की प्रतिस्पर्धा को प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा कि यह उपलब्धि न केवल दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है .
अब जरूरत यह है कि हम भारत के लोग सर्वांगीण विकास के लिए अपने कर्तव्य और दायित्व को सर्वोपरि मानें
अब वह समय आ गया है जब खिलाड़ियों को ओलंपिक के लिए पंजीकृत करने के पहले उनकी योग्यता और दक्षता के अतिरिक्त उनका साइको टेस्ट लेना चाहिए।
#olympics2024
#paralympics2024
#ParisOlympics2024
#दिव्यांग #पूर्णांग
गुरुवार, 5 सितंबर 2024
"हां, पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है"
सनातन धर्म पर कई तरह के सवाल किए जाते हैं। सनातन मानने वाले अधिकांश हिंदू मान्यताओं के वैज्ञानिक महत्व को समझ नहीं पाते हैं। और अजीबो गरीब सवालों के कारण चुप भी रहना पड़ता है। उनमें Feelings of Backwardness और चेहरे पर मायूसी नजर आती हैं। तर्कशास्त्री और सनातन को जड़ मूल से समाप्त करने वाले लोग ठीक है सवाल करते हैं। उत्तर न होने के कारण मायूसी के अलावा कुछ नहीं रहता। अधिकांश लोग मत परिवर्तन तक कर लेते हैं। हमें अपने बौद्धिक स्तर को आगे ले जाना है। केवल पढ़ना नहीं है बल्कि पढ़े हुए का विश्लेषण करते हुए अपने उत्तरों को सटीक और वैज्ञानिक आयाम देना होगा। इसी तरह का एक प्रश्न मेरे भी सामने आया था।
हां, पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है"
"क्या, हमारी पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है
तो तुरंत आप हां कह सकते हैं। क्योंकि यह सत्य है।
आप अपनी बात की पुष्टि के लिए जो जवाब या विवरण प्रस्तुत करेंगे उसे समझने के लिए इस पॉडकास्ट पर अंत तक बने रहिए।
इस बात को समझने के लिए हमें अपनी #गैलेक्सी यानी #मिल्कीवे #आकाशगंगा के बारे में विचार करना चाहिए।
हमारी आकाशगंगा क्षीर मार्ग अर्थात #दूधिया_रास्ते जैसी दिखती है इसी कारण इसे अंग्रेजी में "मिल्की - वे गैलेक्सी" कहते हैं।
हमारी आकाशगंगा का प्रबंधन विष्णु करते हैं वे आकाशगंगा अर्थात गैलेक्सी के नियंता हैं।
हम जिस आकाशगंगा में रहते हैं, जिसे मिल्की वे आकाशगंगा कहा जाता है, वह कम से कम 100 बिलियन तारों से बनी एक सर्पिल आकाशगंगा है।
लास कुम्ब्रेस वेधशाला की रिपोर्ट के अनुसार
हमारी आकाशगंगा लगभग 100,000 प्रकाश वर्ष चौड़ी और लगभग 1000 प्रकाश वर्ष मोटी है। इसमें एक केंद्रीय उभार है जो लगभग 10,000 प्रकाश वर्ष व्यास का है। हमारा सौर मंडल केंद्रीय उभार से आकाशगंगा के किनारे की ओर लगभग एक तिहाई दूरी पर है। यदि सौर मंडल उभार के अंदर होता, तो रात में हम #सिरियस तारे जैसी तेज चमक वाले दस लाख तारे देख पाते। रात का आकाश इतना चमकीला होता कि यह दिन से ज़्यादा अलग नहीं लगता।
हमारा सूर्य और सौर मंडल 1,000 प्रकाश वर्ष मोटी डिस्क के भीतर हैं, तथा हमारे सौर मंडल की स्थिति केंद्रीय तल से केवल 95 प्रकाश वर्ष दूर हैं ।
प्रत्येक तारे का अपना सौरमंडल है । यह जरूरी नहीं की किसी अन्य सौरमंडल में ग्रहों की संख्या हमारे सूर्य के समान हो। वैज्ञानिक अनुसंधान बताते हैं कि हमारी गैलेक्सी में लगभग 50 अरब ग्रह के होने की संभावना है, इनमें से 50 करोड़ तारे ऐसे हैं, जिनके ग्रहों या उपग्रहों पर जीवन होने के अनुकूल तापक्रम हवा पानी मौजूद हो सकता है।
भारतीय सभ्यता के प्राचीन साहित्य में लिखे गए साहित्य में *क्षीर सागर* शब्द का प्रयोग किया है।
*क्षीर सागर अर्थात दूधिया सागर ?*
हमारी आकाशगंगा भी दूधिया रंग की है। और इसकी आकृति *सर्पिल* ।
आप ठीक समझ रहे हैं हमारी पृथ्वी शेषनाग के फन पर है। लास कुम्ब्रेस वेधशाला की रिपोर्ट के हवाले से हमने बताया है कि हम गैलेक्सी के केंद्र से मात्र 95 प्रकाश वर्ष दूर हैं। अर्थात कुंडली पर बैठे सांप के सिरोभाग से हमारी दूरी बहुत कम है।
ईश्वर तत्व के अस्तित्व के प्रमाण के लिए तथा शेषनाग की थ्योरी पर सवाल उठाने वाले विद्वान तर्कशास्त्रियों के लिए को सम्मान सहित बताना आवश्यक है कि पृथ्वी जिस आकाशगंगा में है । भारतीय प्राचीन साहित्य में आकाशगंगा को सर्पिल होने के कारण शेषनाग कहा है।
कैसी लगी ये जानकारी कृपया अपनी टिप्पणियां देकर हमें कृतार्थ करें
#Science_and_Indian_Ancient_Literature
#Infinite_Expansion
Who is the Creator of the universe?
#गार्गी_याज्ञवल्क_संवाद
#वेदों_में_आकाश_अंतरिक्ष
#क्षीरसागर #निरंकार_ब्रह्म
Link https://youtu.be/WnMnuK6ju6k?si=Tmytzixyt5dQZHvF
नई दुनिया जबलपुर में प्रकाशित आर्टिकल अपन जबलपुरिया
वही हुआ जो होना था , एक गज़ब ललित निबंध लिख दिया बक्शी जी ने।
खुद को बक्शी जी के समानांतर खड़ा नहीं चाहता केवल लेखन के पूर्व के संकट की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।
खैर, अपन जबलपुरिया लोग हैं तो कमाल के।
बात 1981 की है हायर सेकेण्डरी पास करके कॉलेज में प्रवेश डी एन जैन कॉलेज में एडमिशन के बाद छात्र नेतागिरी का चस्का लगा दिया ।
सांस्कृतिक साहित्यिक अभिरुचि के साथ सियासी रंगत मिलते ही एक नया अनुभव । मन में अखबारों में नाम छपाने की लालसा हमें विज्ञप्ति वीर बना देती है। हर किसी विषय पर विज्ञप्ति बनाना और फिर आपसी सौजन्य से अखबारों के दफ्तर तक पहुंचवाना लगभग दैनिक प्रक्रिया में शामिल था।
हां याद आया कि उसे दौर में 90 पेंट के बॉटम का साइज धीरे-धीरे कम होने लगा था।
जबलपुर तब भी एक बड़ा कस्बा था जैसा आज है।
याद है अपन जबलपुरिया लड़के रोजिन्ना खाना खाने के बाद अपने-अपने घरों के पास जैसे फुहारा, गढ़ा बजरिया , फुहारा, मस्ताना चौक, डिलाइट टॉकीज, गोरखपुर , घमापुर चौक, घमंडी चौक हिलडुल पान भंडार, मोटर स्टैंड पान गुटके की तलब में जाते थे। उद्देश्य था कि पूरे शहर की खबरें हमें एक दूसरे से सुनने को मिले।
जबकि मां बाप हमें इस मुद्दे को लेकर ताना करते थे - "क्या हम इन स्थानों पर इसलिए जाते हैं कहीं यह चोरी न हो जाए..!"
यह वह दौर था जब साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां सतत रूप से आयोजित होती थी।
महावीर जयंती का कवि सम्मेलन हो और शहर का कोई भी युवा आपके घर में मिले ऐसा हो ही नहीं सकता था।
गतिविधियों के आयोजन की जिम्मेदारी मिलन मित्र संघ हिंदी मंच भारती गुंजन कला सदन, विवेचना त्रिवेणी परिषद मध्य प्रदेश लेखक संघ अनेकांत जैसे संगठनो की स्वघोषित रूप से हुआ करती थी।
साहित्यक गतिविधियों के मामले में अगर किसी एक व्यक्तित्व का नाम उल्लिखित करेंगे तो अन्य पूर्वजों के सम्मान में कमी होगी वास्तव में तब साहित्यिक गतिविधियां कुल मिलाकर प्रशिक्षण कार्यशाला से कम न थी।
अपन जबलपुरियों ने गीत कविता और गद्य लेखन का हुनर इसी शहर से सीखा है।
केशव पाठक जी सुभद्रा जी भवानी दादा के दौर में तो हम न थे परंतु उसके बाद परसाई जी के हाथ से गटागट मिलने के बाद उनके साहित्य का भी स्वाद हमने लिया है।
भोलाराम का जीव पढ़ कर मुझ पर तो इतना प्रभाव पड़ा कि हमने अपनी मातहत का पेंशन प्रकरण उनके रिटायरमेंट के दिन फाइनलाइज कर दिया।
वीरांगना रानी दुर्गावती के स्मृति दिवस को बनाने वाली त्रिवेणी परिषद मिलन मित्र संघ जैसी संस्थाओं के संकल्प बुलाई नहीं भूलते।
डॉ सुमित्र का घर हो या श्री जानकी रमण महाविद्यालय ये हमारे लिए तीर्थ से कम नहीं है।
यही हमारे गुरु हमें प्रेरित करते थे लिखने के लिए कुछ कर गुजरने के लिए। 80 के दशक में किशोरावस्था से ही हम जान गए थे कि यह गुंडों का शहर नहीं है बल्कि महान संस्कारधानी है , जहां रजनीश जैसा विश्व को हिला देने वाले वारियर ने अपनी बयान से तलवार निकाल कर उसे असरदार बनाया था।
जब अभिभावक कहते हैं कि - इस शहर में कुछ नहीं है, तुम मुझे उनकी बाल बुद्धि पर तरस आता है। शहर तुमसे कभी नहीं कहेगा कि मुझ में क्या खासियत है, तुमको खुद शहर को समझना होगा। 10 साल हो गए बच्चों के बीच काम करते, शहर आज भी वैसा बचपन की रहा है जैसा हम अपने बचपन में उत्साहित हुआ करते थे। संगीत कला चित्रकला साहित्य कविता उर्दू साहित्य, आज भी जीवंत है इस शहर में।
होली की रात हम सदर में लुकमान जी को सुनने जाते थे। सियविजन वास सुना कर रुलाने वाले लुकमान जी ने जबलपुर के कवियों को जीवंत कर दिया। लौट लौट के अपनी फिल्मों में जबलपुर के दृश्यों को कैद करना राज कपूर की आदत बन गई थी। पास्कल पाल को गोल्डन टच देकर प्रेम नाथ ने अद्भुत कार्य कियाथा। घनश्याम चौरसिया बादल ने इस शहर को कुछ इस तरह परिभाषित किया है
खदानों के पत्थर जो अनुमानते हैं ।
मेरे घर की दीवारें वह जानते हैं।।
देश के अन्य शहरों के मुताबिक भले ही शहर उतना विकसित न हुआ हो परंतु संस्कारित आज भी है। एक बार फिर कह देना चाहता हूं कि यह गुंडों का शहर नहीं है। यह शहर आचार्य विनोबा की संस्कारधानी है। नजर जैसी नजरिया वैसा, मैनेज जबलपुर को पत्थरों का शहर नहीं कहा क्योंकि यह पथरीला शहर है ही नहीं।
अपन जबलपुरिए अपनी जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञ हम अपने शहर को अपनी मां का दर्ज़ा देते हैं और यह एहसास रखते हैं कि
जा माँ की गोद में, सर रख के सिसक ले
क्यों अश्क़ गिराता है, रिसाला लिए हुए !!
सोमवार, 2 सितंबर 2024
Shri Ram Bhajan | श्री रामचंद्र कृपालु भजमन | सितार पर अनुष्का सोनी |
शनिवार, 31 अगस्त 2024
असहमति मैत्री को खंडित नहीं करती
ऐसा किसने कह दिया कि कोई किसी के विचार से सहमत हो वह साथ नहीं रह सकता?
बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं, जो असहमति के आधार पर परिवार तक तोड़ देते हैं।
वेदांत का सार है सत्संग विमर्श और आपसी विचार विनिमय। क्या आपने इस एंगल से सोचा है?
सनातन में हजारों वर्ष पहले शास्त्रार्थ को मान्यता मिली है। पश्चिमी विद्वान वाल्टेयर ने असहमति को भलीभांति परिभाषित किया है। असहमति का अर्थ आपसी द्वंद्व नहीं है।
सहमति के साथ सह अस्तित्व बेहद प्रभावशाली आध्यात्मिक दार्शनिक बिंदु है।
कई लोग असहमति को आधार बनाकर बेहद संवेदनशील हो जाते हैं। इससे संघर्ष भी पैदा हो जाता है। वास्तव में असहमति का संघर्ष से कोई लेना देना नहीं है। संघर्ष एक मानसिक उद्वेग है जो शारीरिक या बौद्धिक रूप से नकारात्मकता को जन्म देता है।
इससे उलट असहमति एक तात्कालिक या दीर्घकालिक परिस्थिति भी हो सकती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी असहमति को आधार बनाकर युद्ध करने लगे।
स्वस्थ समाज में स्वस्थ मस्तिष्क के लोग अक्सर आपस में असहमत होने के बावजूद एकात्मता के साथ रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि शक्कर की बरनी छोटे या बड़े शक्कर के दाने होने से शक्कर की मूल प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
मित्रों कभी मेरी किसी भी मित्र के साथ असहमति होती है अथवा हो गई हो तो मुझ पर क्रोधित मत होना क्योंकि मैं असहमति के आधार पर द्वंद के जन्म से सहमत नहीं रहता। मेरे एक पूज्य वरिष्ठ अधिकारी हैं जो बेहद करुणा भाव से मुझे देखते हैं उनसे कई मुद्दों पर वैचारिक असहमति या हैं परंतु उनका इसने मुझ पर सदा बरसता है। यही महात्मा गांधी महात्मा गौतम बुद्ध महावीर स्वामी भगवान श्री राम जैसे महान व्यक्तियों द्वारा बताया गया मार्ग है। भारतीय जीवन दर्शन जीवंत दर्शन है। भारतीय जीवन दर्शन की शुचिता के लिए हर असहमति के प्रति सम्मान व्यक्त करने से हमारा जीवन सुदृढ़ एवं पवित्र हो जाता है। यही हर मुमुक्षु के लिए सनातनी संदेश है। हाल के दिनों में हम सब सहमति और असहमति के साथ दो भागों में विभक्त हैं। एक व्यक्ति लोगों के माइंड को पढ़कर एक पर्ची पर कुछ लिख देता है। और उसे ईश्वर की कृपा कहकर स्वयं को उस प्रक्रिया से ही अलग कर लेता है। दूसरी ओर एक युवा लड़की माइंड रीडिंग करके अपने हुनर को जादूगरी की श्रेणी में रखती है। दोनों में फर्क यह है कि एक अपनी माइंड रीडिंग की योग्यता रखते हुए भी अस्तित्व को ब्रह्म के आशीर्वाद को महान बताता है जबकि दूसरी ओर वही युवा बालिका अपने आप को मैजिशियन बताती है। एक टीवी चैनल इससे धजी का सांप बनाकर पेश करता है। इससे दर्शक और पाठक भ्रमित हो जाते हैं। जबकि इसका अर्थ यह है कि अगर यह जादू होता इसे बहुत से लोग आसानी से सीख लेते परंतु सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या में से मात्र कुछ ही लोग इस तरह की क्रिया प्रदर्शित कर पाते हैं। कुल मिलाकर आस्तिक लोग इसे ईश्वर की कृपा मानते हैं जबकि नास्तिक ऐसी प्रक्रियाओं को पाखंड कहते हैं अथवा जादूगरी मान लेते हैं। अगर मैं हर असहमत व्यक्ति से दूरी बनाने लगूं अथवा दुश्मनी पालूँ तो मुझसे बड़ा मूर्ख कौन होगा भला?
वर्तमान युग में यही एक बहुत बड़ी कमी है।
यही योग अहंकार और स्वयं को सिद्ध करते रहने का युग है। इस युग में हम सोचते हैं कि जो कर रहे हैं वह हम ही कर रहे हैं। ऐसी अवधारणा लोकायत विचारकों अर्थात नास्तिकों की होती है। नास्तिक जिनको ब्रह्म के अस्तित्व पर तनिक भी भरोसा नहीं होता मान लिया जाए कि ब्रह्म नहीं है उस नास्तिक की दृष्टि में परंतु यह कोई कारण नहीं है कि आस्तिक और नास्तिक के बीच आपस में कोई झगड़ा हो जाए। दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं।
भारत का सनातन चिंतन सत्य के लिए संघर्ष करता है, वैचारिक संघर्ष, कभी कभार ही जय दवा सुर संग्राम, राम रावण युद्ध अथवा महाभारत हुए हैं। यह सब धर्म युद्ध थे।
जबकि जिहाद और क्रुसेड निरंतर चल रहे हैं। विचारधाराऐं जब संघर्ष को जन्म देती हों तो निरंतर चलने वाले युद्ध हुआ करते हैं। ऐसे युद्ध विध्वंस की ओर ले जाते हैं।
भारतीय परंपराओं में कुछ बदलाव आयातित विचारधारा के कारण आ चुका है। हम श्रेय लेने की मरीचिका
(Mirage ) दौड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
साफ है कि अब हम तो सोचते हैं कि यह कार्य मैंने किया इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। ऐसी स्थिति में एकात्मता खंडित हो जाती है।
आस्तिक लोग वास्तव में ऐसे विचारकों से भिन्न होते हैं, जो आत्म केंद्रित होकर हम सब के कांसेप्ट को छोड़कर सब हम के कॉन्सेप्ट पर आ जाते हैं।
एक बार की सत्य घटना में आपको बताता हूं किसी व्यक्ति पर मुझे अनायास क्रोध आ गया। उसने मुझसे कुछ गलत बयानी की थी। परंतु दूसरे ही पल मुझे यह महसूस हुआ कि-" जो मैं कर रहा हूं वह मैं नहीं कर रहा हूं यह ईश्वर द्वारा किया गया कार्य है।"
तब तुरंत ही मैंने महसूस किया-" उस व्यक्ति ने जो किया है, वह उसने नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा के अनुकूल हुआ है।" इतना सोचते ही कुछ व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव तुरंत समाप्त होगया।
मस्तिष्क पूरी तरह से सामान्य प्रशांति में फलक पर गतिमान हो गया। फलस्वरूप न तो मैं हिंसक बन पाया और न ही हिंसा करने के लिए मुझे मेरे शारीरिक संवेग ने प्रेरित किया।
एक अनुचित हिंसा करने से मैं बच गया।
सच मायने में यह घटना असामान्य हो सकती है।
क्योंकि अपराधी को अपराध का दंड मिलना चाहिए था। परंतु मेरे विचार से मैंने यह कार्य ईश्वर पर छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति बेहद दीन हीन स्थिति में मेरे सामने आया। मैं समझ चुका था कि यह व्यक्ति ईश्वरीय दंड का भागी हो चुका है।
कोई व्यक्ति यदि धन पद प्रतिष्ठा और सत्ता का अधिकारी बन जाए और अहंकार तथा स्वयं के सम्मान की ज्यादा फिक्र करने लगे तो वह किसी भी स्थिति में न तो सहज रह सकता है और न ही सार्वजनिक भलाई के कार्य कर सकता है।
अगर वही व्यक्ति इन सबके होते हुए भी अहंकार से मुक्त रहता है तो वह सबसे पवित्र मुमुक्षु बनता है ।
इस प्रकार अहंकार आत्म प्रदर्शन और स्वयं को श्रेष्ठ करते रहने के लिए रास्ते बनाता है। इन रास्तों में आए किसी भी अवरोध के विरुद्ध वह व्यक्ति सक्रिय हो जाता है। अवरोध चाहे व्यक्ति हो या विचार। अहंकारी व्यक्ति जो आत्म केंद्रित भी होता है ऐसे व्यक्तियों और विचारों को समूल नष्ट करते हैं।
ठीक उसी तरह जैसे दारा शिकोह को औरंगजेब ने हाथी के पैरों से कुचलवा दिया था। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और स्टालिन ने भी ऐसा ही कुछ किया। मित्रों रावण के चरित्र को ध्यान से देखिए असहमति के कारण उसने अपने छोटे भाई को लात मारकर लंका से बाहर कर दिया। मित्रों आप सोचिए हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उसकी पसंद भिन्न होती है उसकी आदतें भिन्न होती है उसका चिंतन भी भिन्न होता है। परंतु इस आधार पर अगर संघर्ष होने लगे तो पृथ्वी पर मानवता समाप्त हो जाएगी।
हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत हूं आपकी असहमति का सम्मान करते हुए मैं आपको प्रणाम करता हूं।
*ॐ श्री राम कृष्ण हरि:*
गुरुवार, 29 अगस्त 2024
Indian Classical Music 🎶 | राग भैरवी | Dr Shipra Sullere | Somnath Soni
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सुधिजनो, सनातन धर्म पर कई तरह के सवाल किए जाते हैं। सनातन मानने वाले अधिकांश हिंदू मान्यताओं के वैज्ञानिक महत्व को समझ न...