संत वैलेंटाइन के लिए
प्रेम का सन्देश देने वाले दिन में बुराई क्या..? इस सवाल पर घच्च से अपने राम पर
पक्ष द्रोही होने का आरोप तय कर दिया जावेगा कोई डंडा लेकर मारने भी आ जावे इसका
मुझे पूरा पूरा अंदाज़ है. देर रात तलक नेट पर
निर्वसना रतियों को निहारते लोग या फिर रूमानी चैट सेवाओं का लाभ उठाते लोग
ही सर्वाधिक शक्ति के साथ इस दिवस पर सक्रीय
नज़र आते हैं . जबकि परिवारों में बालिकाओं और
महिलाओं के साथ दुराचारों पर इनकी निगाह कभी कभार ही ही पड़ती होगी.
घरेलू शोषण पर आक्रामक
क्यों नहीं होते ये लोग. वास्तव में यह सब एक पूर्वाग्रही मिशन के हिस्से होते
हैं. जो बिना समझ के विरोध का परचम लेकर आगे बढ़ते हैं. वास्तव में होना ये चाहिए
कि घरेलू सद संस्कारों को सुधारने के संकल्प लेकर विदेशी संस्कृति के पार्कों
कहवाघरों में होने वाले विकृत अनुप्रयोग को रोकने की कोशिश सतत जारी रखनी चाहिए.
आपने शायद ही इन संस्कृति
के स्वयंभू रक्षक-सेनानियों को पोर्न साइट्स पर प्रतिबन्ध, अत्यधिक उत्तेजक चित्र
छापने वाले अखबारों के संपादकों से ऐसा न करने का अनुरोध करते देखा हो ... मेरी
नज़र से कभी भी ऐसा कोई संस्कृति रक्षक
नहीं गुज़रा जो ऐसा करता हो.
मुद्दा देश में संस्कृति
की रक्षा का कम आत्म-प्रदर्शन का अधिक नज़र आता है. इस युग की ये सबसे बड़ी समस्या है कि लोग समाज और
सांस्कृतिक विरासतों और मूल्यों को लेकर
चिंता-ग्रस्त हैं और इसी चिंता में हिंसक हो जाते हैं. फिर संवैधानिक
व्यवस्था को नकारते हुए किसी प्रेमी-युगल को बेईज्ज़त कर अपना तालिबानी अंदाज़ सामने
लाते हैं.
भारत के योग, दर्शन को
पाश्चात्य देशों में बड़े आदर से स्वीकारा जाता है. तो अगर प्रेम के सन्देश देने
वाले संत को हम भी सकारात्मक रूप से आदर दें तो बुराई क्या है....? हमारे ऋषियों
मुनियों ने कभी भी वैदेशिक संस्कारों को रोकने का प्रयास नहीं किया बल्कि अपने
संस्कारों को मज़बूत बनाने के लिए प्रभावी कदम उठाए. सनातन व्यवस्था को कभी भी किसी
के खतरे का भय नहीं रहा . बल्कि इस देश से लोगों ने सीखा ही है. अब अगर संत
वैलेंटाईन के स्मृति दिवस को प्रेम का
इज़हार कर मना रहें हैं तो सनातनी व्यवस्था
पर किस प्रकार खतरा होगा...? कर्मयोगी कृष्ण ने भी तो प्रेम का सन्देश दिया
था. फिर हो सकता है कि संत वैलेंटाइन
कृष्ण से प्रभावित हो प्रेम के सन्देश को
विस्तार देना चाहा हो. तब क्या आप विरोध करेंगें मेरी समझ से परे है...!
समझ से परे तो यह भी है
कि जो लोग प्रेम को यौन संबंधों का पर्याय मानते हैं उनके मानस में शुकदेव मुनि का
स्मरण क्यों नहीं रहता.
एक बार खुद से पूछा - एक
पुरुष हूँ महिलाओं से मिलकर सामान्य क्यों रहता हूँ ? उसे भोग्या , कमजोर , और
विलास की वास्तु क्यों नहीं मानता ?
फिर चिंतन करता हूँ तो
उत्तर भी पाता हूँ कि मुझमें मौजूद
महिलाओं और पुरुषों के प्रति एक सम व्यवहार के पुख्ता आचरण की वज़ह से मुझे कभी भी किसी महिला के लिए भोग्या और कमजोर समझाने के भाव नहीं आते और न फिर असहज होता हूँ ?
इस बार मैंने अपनी समाज
से आह्वान किया कि समाज की मुखिया का पद महिला के हाथ सौंपें ? मुझे मालूम था कि न
तो महिलाएं ही मेरी राय से सहमत होंगीं और पुरुष वर्ग के उपहास का पात्र बनाना तय
है हुआ भी ठीक वैसा ही. मेरी सफलता इतनी मात्र थी कि समाज के सामने एक अनोखा विषय
विचार मंथन के लिए आया उद्देश्य इतना ही था.. क्योंकि रूढ़ियाँ अचानक नहीं टूटतीं
इसे तोड़ने के संकल्प कुछ लोग ही ले पाते हैं शेष कुंठा और भय की पल्ली ओढ़ अनजान बन जाना चाहते हैं .
उनमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आक्रामक
हो जाते हैं.
वास्तव में यह प्रेम नहीं
है न तो ये कृष्ण से ही हम सीख पाए और न ही संत वैलेंटाइन से . हमने प्रेम को
शारीरिक बना लिया है जबकी सदगुरु शुद्धानंद नाथ के सूत्रानुसार –“प्रेम ही संसारकी नींव है”...
जब हम नारियों के अधीन
नहीं रहना चाहते तो यही तय हुआ न कि हम केवल उसे दुर्बल देखना चाहते हैं.
सामान्यतया कोई भी दुर्बलता से प्रेम नहीं
करता सिर्फ प्रेम जताता है. प्रेम करना और
प्रेम जताना दो प्रथक भाव हैं. प्रेम प्रेमी करता है जबकि शासक प्रेम जताता है...
और जिसमें शासक का भाव है वो किसी से भी प्रेम कर ही नहीं सकता ! न नारी से न बच्चों
से न ईश्वर से ही .
( नोट : सभी फोटो गूगल से साभार ली गईं हैं आपत्ति होने पर अवगत करावें )
गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
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