अदेह का सदेह
एहसास हो ।
जो व्योम के पार ले जाना चाहता है मुझे !!
प्रेम में
मैंने तुमको
तुमने मुझे
स्वीकारा है
लौहित अधरों से
छलकती कंपकपी
जाने कब मदालस कर देती है
और पहुँच जाते हैं हम
व्योम के पार
जहां से कोई सूरज ऊग रहा होता है
तब तुम सिलवटें सुधारने के
करने लगती हो प्रयास !!
फिर हौले से एक दीप्त चेहरा लिए
ताम्रपात्र में तुलसी पूजन के साधन
लिए गुज़रती हो
मुझ जैसे आलसी के क़रीब से
बाद वही गंध जो निशीथ की किरणों संग
मदालस बना देती हो
और तुम्हें मदालसा !!
अल्ल सुबह ये क्या होता है
तुमको
एक वीतारागिनी सी
गंभीर हो जाती हो ।
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