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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

जबलपुर के काफ़ी-घर बदल गये हैं


अब नहीं लिखी जातीं  यहां
बदलाव की तहरीरें..
पेंच लड़ाती कमसिन जोड़ियां
आतीं हैं जातीं हैं.. 
मर्दाने-जनाने परफ़्यूम की खुशबू
छोड़ जातीं हैं..
सुबह दोपहर शाम बस 
एक ही तरह के लोग आते हैं.. 
उनके आने जाने में
अदा होती है
कभी कभार आते हैं कुछ कामरेड
गोया आते नहीं लाए जाते हैं. 
एक जरजर 
फ़र्नीचर की मानिंद 
अखबारों रिसाले वाले भी आते हैं कभी कभार 
पर उनसे मेहनत से चुहचुहाए पसीने के साथ 
मिली छापाखाने की कागज़-स्याही की गंध का एहसास नहीं होता..
कुछेक आते हैं नये लड़के अखबारों से
महंगे सेलफ़ोन सर्र सर्र एनरायड नस्ल वाले साथ लेकर
बाहर बाईक खड़ी करते हैं जहां शायद कभी
पुराने खद्दरपोश कलमकारों की
खड़खड़िया सायकलें खड़ी होती  थीं..
जब तुम सब बदल गये हो 
तो मैं क्यूं न बदलूं खुद को..
मैं भी तुम्हारे शहर का 
सबसे पुराने काफ़ी घरों का नुमाईंदा हूं
मुझे भी बदल जाने का हक़ है..!!
********गिरीश"मुकुल

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