तुम तुम्हारी पीर
मेरी कब हो गई सच
अचानक ...
तुम से मिलकर बेतहाशा खुश हूं पर
जानता हूं
तुम उदासी को मुस्कुराहट
के दुशाले में ढांक लेती
किसी से कुछ भी नहीं कहती
चुपचाप
अपलक छत को निहारती देर रात तक
जूझती हो
व्योम के उस पार
तक देखतीं तुम मुझे अक्सर
दिख ही जाती हो
जानता हूं
फ़िर खुद से पूछता हूं कि
क्यों रुक गया तुम्हासी रेशमी आवाज़ सुन कर
तुम्हारे इर्द गिर्द
एक
वलय बन के क्यों घूम रहा हूं
जो भी हो व्योम के पार का तुमसे मेरा भी आभासी नाता ज़रूर है
क्योंकि
सच अब हम अनजाने नातों में बंध गये हैं
शायद
मेरी कब हो गई सच
अचानक ...
तुम से मिलकर बेतहाशा खुश हूं पर
जानता हूं
तुम उदासी को मुस्कुराहट
के दुशाले में ढांक लेती
किसी से कुछ भी नहीं कहती
चुपचाप
अपलक छत को निहारती देर रात तक
जूझती हो
व्योम के उस पार
तक देखतीं तुम मुझे अक्सर
दिख ही जाती हो
जानता हूं
फ़िर खुद से पूछता हूं कि
क्यों रुक गया तुम्हासी रेशमी आवाज़ सुन कर
तुम्हारे इर्द गिर्द
एक
वलय बन के क्यों घूम रहा हूं
जो भी हो व्योम के पार का तुमसे मेरा भी आभासी नाता ज़रूर है
क्योंकि
सच अब हम अनजाने नातों में बंध गये हैं
शायद
SUPRB POST
जवाब देंहटाएंSUPRB POST
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रेममय प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमेरी नई कविता देखें । और ब्लॉग अच्छा लगे तो जरुर फोलो करें ।
मेरी कविता:मुस्कुराहट तेरी
किसने मना किया चाहने से, कौनो कर्फ़्यु लगा है? :))
जवाब देंहटाएंBahut hi sundar rachna.....
जवाब देंहटाएंDr. Sahiba dusre blog mein aapne kafi din se kuch nahi likha h. Maf karna man mein utsukta thi esliye puch liya.
बस अब कुछ कहने को बाकी न रहा
जवाब देंहटाएंदिल के ज़ज्बातो को आपने शब्द दे दिए
विजय