आभार सहित : सहयात्री |
सिहरन धड़कन का कारन अब
नयनगंग की इन धारों को
लौट के देखा तुमने है कब
प्रेम पत्र के साथ गुज़ारा
कब तक करूँ कहो तुम प्रियतम
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हुई हुलासी थी तुम जब तुमने
प्रेमपंथ की डोर सम्हाली
कैसे लुक-छिप के मिलना है
तुमने ही थी राह निकाली
जब-तब अंगुली उठी किसी की
थी तुमने ही बात सम्हाली !
याद करो झूठी बातों पर
हम-तुम बीच हुई थी अनबन...!
प्रेम पत्र के साथ गुज़ारा
कब तक करूँ कहो तुम प्रियतम
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आज विरह का एकतारा ले
स्मृतियों के गलियारों से
तुम्हें खोजने निकल पडा हूँ
अमराई में कचनारों में
जब तक नहीं मिलोगे प्रिय तुम
सफ़र रहेगा अंगारों में
इस यायावर जीवन को भी
कोई तो देगा मन-संयम
प्रेम पत्र के साथ गुज़ारा
कब तक करूँ कहो तुम प्रियतम
अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंwaah waah ..........bahut sundar bhaav bhare hain.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाई गिरीश ,...
जवाब देंहटाएंकहाँ विरह मन डूब रहे हों ,
लिख-पढ़ कर भी ऊब रहे हों ,
आज नहीं , कल फिर आओगे
जैसे लोट के बुधू घर को आये
ऊपर वाला हमेशा हम सबके साथ रहता है
जवाब देंहटाएंजगाता, सुलाता खाता-पचाता ये विश्वाश रहता है
जब तक साथ रहता है सांसों-सांस रहता है
यदि वो घर छोड़ दे तो, सिर्फ हाड़-मांस रहता है ....
is virah ko samajhane virahee bano
जवाब देंहटाएंबसंत दुनियावी विरह से हट के सोचो तो ज़रा भाई
बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंदीपावली, गोवर्धनपूजा और भातृदूज की शुभकामनाएँ!
बहुत सुंदर और सच लिखा है आपने !
जवाब देंहटाएंवाह ..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !!
वाह
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