जी हां आज़ मटुकनाथ जी जो अपने आपको प्रेम का देवता माने बैठे हैं को नेट पर प्रेम को परिभाषित करने की चुनौती दी है. सुधिजन के कोई सुझाव/सवाल हों तो भेजिये ताकी इस नाटक के सूत्र धार का मनोवैज्ञानिक आधार सामने ला सकूं . मुझे मालूम है मटुक सिर्फ शब्दों की छाता लगाएंगे. देखूं शायद नौटंकी-सेलिब्रिटी से कुक उगलवा सकूं . मटुक नाथ जी का मेल आई डी है :- julimatuk@gmail.com और मेरा तो आप सब जानते ही हैं वैसे इस बात का ध्यान रखिये मैं प्रेम का विरोधी कदापि नहीं. पर सदाचार तोड़ कर जिन तर्कों से खुद को बचाता है उस बात का विरोधी अवश्य हूं. मेरा मानना है गलतीयों को स्वीकारो . हर धर्म यही कहता है हर धर्म का आधार यही है और अध्यात्म तो कभी भी प्रेम का द्रोह नहीं करता . परंतु सदाचार की व्याख्या भी तो करता है. मैं आज स्पष्ट कर दूं "मै मानता हूं कि मटुकनाथ केवल बायोलाजिकल प्रेम को ’सच्चा प्रेम’ बताते फ़िर रहे हैं. शेष आगे देखतें है क्या कहतें मटुक जी.
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"यदि सहमति मिल गई तो सिर्फ़ मटुक जी से ही बात करूंगा मैं जूली जी से कोई बात नहीं करूंगा "
यदि बात हुई तो सारी चर्चा टेक्स्ट-पोस्ट के रूप में इसी ब्लाग पर पूर्ण होने पर प्रकाशित की जावेगी
इस के लिये उनका जी चैट पर होना ज़रूरी है चैट हेतु आमंत्रण भेज दिया है .
आप भी सही सही चीज खोजकर लाते हैं ...पूछिए उनसे कि अब प्रेम की परिभाषा बदली क्या इतने सालों बाद ?
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