
[साभार: श्री विजय अग्रवाल ]
मन प्याली, मदिरा थी प्रीती ..!
ह्रदय -सुराही तौ न रीती
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लोग कहें बावली, इत उत मद छलकाये
बोलूं तो लोग कहें- काहे तू इतराये ?
सीमा जो लांघी तो सोच लै परणीति !!
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न तू सुहागन है न तू बैरागन री
दरपन सनमुख कर तू अपना अनुमापन भी ?
हेरी सखि का मैं करूं ? रोके जग रीती ...!
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मैं ही बिरागन हूं मैं ही सुहागन भी
जे खौं प्रिय नाप लियो, सुध का अनुमापन की !
सुन दुनियां हार गई, आतमा जा जीती !!
बहुत सुन्दर रचना है
जवाब देंहटाएंमैं ही बिरागन हूं मैं ही सुहागन भी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
बेहतरीन रचना..अब इसे गाकर सुनाईये.
जवाब देंहटाएंअनुमापन का अर्थ ?
जवाब देंहटाएंतब शायद अच्छी तरह समझ पाती.प्रीत की मदिरा कभी रीति हो नही सकती इसकी विशेषता यही है.किसी जादुई पात्र की तरह या सरस्वती के भंडार की तरह ये जितनी पिलाओ बढती जाती है.
इतनी मामूली सि बात इंसान जीवन भर नही समझ पाता और अपने और अपनों तक इसे समेट लेता है.
बिलकुल सही कहा प्रीत बड़ी खूबसूरत शै है किन्तु उसकी अपनी सीमाए है,देह की सीमा,समाज की सीमा जब भी इं सीमाओं को लांघ गया,परिणिति(हा हा हा परणिति नही) कभी सुखद नही हुई.
भई आपने तो प्रीत,प्रीत-बावरी और दोनों की सीमाए भी उकेर दी अपनी रचना मैं.
अच्छा लगा पढ़ कर.
बधाई दूँ?
हा हा हा
इन्दु ताई
जवाब देंहटाएंसादर-प्रमाण
आपके स्नेह से अभीभूत हूं,समीर जी,एम वर्मा जी,मीणा जी,आप सभी का अभार
sundar rachna...waah...
जवाब देंहटाएंआपकी रचना ,,वाकई में सुन्दर है ....इसी तरह की एक रचना पर आपके सुझाव की आवश्यकता है ,,,,प्रतीक्षारत हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है।
जवाब देंहटाएंbahu t khoob kaha hai ...shukriya
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