उमर-खैयाम की रूबाइयों के अनुवादक पंडित केशव पाठक के बारे में जितना लिखा जाए अंतर जाल के लिए कम ही है मुझे विस्तार से जानकारी न होने के कारण जो भी लिख रहा हूँ श्रुति के आधार पर फिर भी कुछ जानकारीयां उपलब्ध किताब में मिलते ही लोभ संवरण न कर सका जाने क्यों मुझे लग रहा है कि अगर संस्कारधानी के इस सुकवि को अभी न उकेरा गया अंतरजाल पर तो शायद फिर कौन कब करेगा यह काम जो ज़रूरी है ...........?
अस्तु ! आपका परिचय स्वर्गीय केशव पाठक से करा दूं उनके इस प्रेम गीत के ज़रिये
सुकवि ने उमर-खैयाम की रुबाइयात का हिंदी तर्जुमा जिस सहजता से किया वो समझने काबिल है
अंग्रेजी : AWAKE ! for Morning in the bowl of night
Has flung the stone that puts the starts to flight
And lo ! the Hunter of the East has caught
The Sultan's Turret in a Noose of ligth .
* हिंदी : जाग ! प्रात ने फैंका निशि के पेय पात्र में अरुण उपल अस्तु ! आपका परिचय स्वर्गीय केशव पाठक से करा दूं उनके इस प्रेम गीत के ज़रिये
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ :
दिनमणि से ले किरण कान्ति की
मधुऋतु से यौवन की काया
कुसुम-सुरभि से मृदुल प्राण ले
सुरधनु से सतरंगी माया
निशि-तम में अभिसार,दिवस-आभा में मिल विहार करतीं हूँ .
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
आमन्त्रं बंधन को दे
बंदी-जीवन स्वीकार किया है
बन कर मिटने का केवल
मैनें उअसे अधिकार लिया है..
अणु-अणु सँवर-सँवर तिल-तिल मिट-मिट पूरा करार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
उसके रंग महल में मेरी
स्नेहमयी यह जीवन बाती,
उसकी ही इच्छा से जलती
उसके इंगित पर बुझ जाती
दृग-युग से जल बुझ उसकी क्रीडा ही का प्रसार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
अली,बावला ज्ञान, छायामय
जीवन मेरा व्यर्थ बखाने ,
मैंने तो चिर सहचरी छाया
बन कर अपने प्रिय पहचाने
अपने पन की नहीं आज मैं छाया की पुकार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
दिनमणि से ले किरण कान्ति की
मधुऋतु से यौवन की काया
कुसुम-सुरभि से मृदुल प्राण ले
सुरधनु से सतरंगी माया
निशि-तम में अभिसार,दिवस-आभा में मिल विहार करतीं हूँ .
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
आमन्त्रं बंधन को दे
बंदी-जीवन स्वीकार किया है
बन कर मिटने का केवल
मैनें उअसे अधिकार लिया है..
अणु-अणु सँवर-सँवर तिल-तिल मिट-मिट पूरा करार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
उसके रंग महल में मेरी
स्नेहमयी यह जीवन बाती,
उसकी ही इच्छा से जलती
उसके इंगित पर बुझ जाती
दृग-युग से जल बुझ उसकी क्रीडा ही का प्रसार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
अली,बावला ज्ञान, छायामय
जीवन मेरा व्यर्थ बखाने ,
मैंने तो चिर सहचरी छाया
बन कर अपने प्रिय पहचाने
अपने पन की नहीं आज मैं छाया की पुकार करतीं हूँ
सखी,मैं उसे प्यार करतीं हूँ
अंग्रेजी : AWAKE ! for Morning in the bowl of night
Has flung the stone that puts the starts to flight
And lo ! the Hunter of the East has caught
The Sultan's Turret in a Noose of ligth .
नभ मंडल में मची खलबली,हरिन हो गया तारक दल
ले ! पूरवी शिकारी ने अपना किरनीला फंदा फैंक
सुल्तानी गुम्बज़ ली बाँध,देख,उठ कर तू भी तो देख
इस वासन्ती रचना के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना के लिये धन्यवाद। स्व. केशव पाठक जी को विनम्र शरद्धाँजली।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति . केशव पाठक जी को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ ...
जवाब देंहटाएंMishr ji
जवाब देंहटाएंPdharne ka abhar
मुकुल भाई।
जवाब देंहटाएंकेशव पाठक जी की इतनी शानदार रचना पढ़वाने के लिए बहुत बहुत आभार आपका। तर्जुमा भी अगर मौलिक लगे तो समझिए श्रम सार्थक हुआ।