न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका-
जिसे तपा के जांचा जाए.
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जितनी बार रूमानी होकर
स्वप्निल होने को मन कहता
उतनी बार मीत तुम्हारा
भोला मुख सन्मुख है रहता.
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सच तो है अखबार नहीं तुम,
जिसको को कुछ पल बांचा जाये.
न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका-
जिसे तपा के जांचा जाए.
मनपथ की तुम दीप शिखा हो
यही बात हर गीत है कहता ।
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सुनो प्रिया मन के सागर का
जब जब मंथन मैं करता हूं
तब तब हैं नवरत्न उभरते
अरु मैं अवलोकन करता हूँ
हरेक रतन तुम्हारे जैसा..!
तुम ही हो , मन है कहता.
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मन के मनके साझा करतीं
पीर अगर तो मुस्कातीं तुम ।
पर्व दिवस के आने से पहले
कोना कोना चमकाती तुम !
दुविधा अरु संकट के पल में
मातृ रूप , तुम में मन लखता ।।
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