साभार : ट्रिब्यून से |
प्यार की कोई वज़ह न थी पर हो गया तो हो गया . मुझे उसकी हर
बात भा रही थी बेवज़ह अचानक खिंचती चली गई . ये अलग बात है कि मुझे खींचने कई मुंह बाए यूं
जाल लगाए तका करते कि कब मैं उनके जाल में आऊ पर ऐसी निगाहों से भयातुर तो नहीं पर बचना मुझे
बखूबी आता है. वो सामान्य सा इंसान साफ़ गोई में सब कुछ कह देता . मुझे मुड़ कर भी न
देखता मैं थी कि कभी पायल बजा के तो कभी अकारण उसे देखते ही मुस्कान बिखेर देती . पर वो बन्दा बड़ा ही सख्त
था पता नहीं किस मिट्टी का बना था .
उस दिन जब वो बेहद उदास सा घर लौट रहा था तब उसने पहली बार मुझे बड़े सलीके और तहजीब से निहारा.
मैं पोर-पोर प्रीत में भीगती चली गई . मृदुल आवाज़ में पूछा –“माँ, चाबी दे गई क्या..? ”
मैंने कहा था- न, ... पर तुम आ जा ओ थके हो चाय पी लो मेरे
घर में कुछ देर आराम से बैठो. माँ मंदिर से आती ही होगीं . थका था .. उदास भी नज़र आ रहा था . उसकी उदासी
मिटाने मैंने भी कसम खा ली थी . अपनी संगीत की उपलब्धि बताई मेरी खुशी के लिए शायद वो ज़रा सा खुश हुआ चाय की चुस्कियों के साथ
मुझसे गीत गाने की फरमाइश की गीत सुना भी .
आवर मुस्कुराया भी . तब तक माँ आ गई आहट
मिलते ही वो मेरे घर से निकला खुद के घर चला गया .
आज़कल आस-पड़ोस में प्रेम पनपना सहज बात होती है . पर मेरे
लिए सहज इस लिए न थी क्योंकि मेरे मन में उसके लिए अथाह प्रेम था . आज़कल की तरह वर्चुअल नहीं .
मुझे मालूम था कि वो भी मुझे पसंद करता है . शायद अपने आप
को किसी और मुकाम तक ले जाने के गुंताड़े में उसे न मैं नज़र आती न ही उसे अपने
ड्रेस को सलीके से चुनने का ही सलीका था. एक दिन तो वो ट्रेक सूट पर दफ्तर जाने
लगा तब पूछा था मैंने- आज छुट्टी ली है क्या..?
“न.. दफ्तर ही तो जा रहा हूँ ...... !”
“ट्रेक-सूट अच्छा है .......!” ये सुनकर ज़रा मुस्कुराया और
वापस घर जाकर ड्रेस बदल कर आफिस के लिए रवाना हुआ.
सोचती रहती थी कि कैसे कहूं .. कब कहूं
उसे आई लव यू सोचती ही रह गई .. कह न सकी . ::::::
सारे मोहल्ले में अचानक एक पीड़ा का सैलाब था मैं भी उसी
सैलाब में डूबी हुई रो रही हूँ .. आज मुझे पता चला कि वो देर रात तक पढ़ते पढ़ते ब्रेन-हेमरेज
का शिकार हो गया है . 72 घंटे की मियाद मिली है . पूरे समय बेसुध पागल से मैं माँ
पापा से नज़र बचा के रो लिया करती थी . प्यार जो करती थी न उससे .. 70 वें घंटे में
उसे होश आया . मैं अस्पताल में न थी सुना है .. उसके मुंह से कुछ शब्द निकले थे ..
जो थे -“ माँ ... अनु” .. आंटी ने मुझे फोन करके बुलवाया अस्पताल पहुंचते ही आंटी
ने ज़ोर जोर से उसके कान के पास कहा- लो, आ गई तुम्हारी अनु.. लो बेटा उठो बोलो
क्या कहना है ..
एक भरपूर निगाह से मुझे देखते हुए आकाश की ओर अपलक देखता
रहा . नि:शब्द, फिर नि:स्वास . बस उसकी यात्रा इतनी ही थी ....... मेरी
.......लम्बी है....... खामोश उसके न होने का दर्द लिए आज तक अकेली हूँ उसकी याद
में ........ अब न माँ हैं न पापा , बस बूढ़ी आंटी अंकल हैं.. मैं हूँ .. अकेली नहीं
उसकी यादों के साथ...!
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