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बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

रवा-रवा रेखाओं के लिए बिंदु - बिंदु मिलाती तुम

हां !! मुझे याद हैं
वो दिन
जब तुम
अंगूठे और तर्जनी के बी़च
रवीली रंगोली कस के उठातीं थीं
फ़िर रवा-रवा रेखाओं के लिए
बिंदु - बिंदु मिलाती तुम 

ओटले वाला  आंगन सजाती तुम  !!
तब मैं भी
एक "पहुना-दीप"
तुम्हारे आंगन में
रखने के बहाने
आता  ..

एक मदालस सुगंध का 
एहसास पाता  
याद है न तुमको 
तुम मुझे देखतीं  
कुछ पल अपलक 
फ़िर अचकचाकर तुम पूछती-"हो गई पूजा !"
और मैं कह देता नहीं-"करने आया हूं दीप-शिखा की अर्चना.."
अधरों पर उतर आती थी
मदालस मुस्कान
ताज़ा हो जातीं हैं वो यादें अब
जब जब रंगोलियां ओटले वाले  आंगन सजातीं हैं.. 


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