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मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

और पता है मुझे ज़िन्दगी हूँ तुम्हारी


तुम हो ……


हाँ , यहीं मेरे आस पास 

खामोश से अपने सफ़र मे गुम 

मेरे अक्स को सीने मे छुपाये 

मगर फिर भी ना जाने 

कौन सी खलिश रोकती है पुकारने से 

देखो जो तुम कह नही रहे न

वो भी सुन रही हूँ 

और जो तुम महसूस कर रहे हो न 

वो स्पर्श भी मुझ तक पहुँच रहा है 

यूँ तो कोई ज़िन्दगी से रुख नही मोडा करता 

और पता है मुझे ज़िन्दगी हूँ तुम्हारी 

यूँ ही नही कहा करते तुम मुझे ………जानाँ ..........है ना

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