साभार:प्रतिबिम्ब ब्लाग |
रख के फ़िर भूल गई, लेटी जा बिछौना
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पल में घट भर जाते,
नयन नीर की गति से
हारतीं हैं किरनें अब -
आकुल मन की गति से.
चुनरी को चाबता, मन बनके मृग-छौना ?
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बिसर गई जाते पल,
डिबिया भर काज़ल था
सौतन के डर से मन -
आज़ मोरा व्याकुल सा
माथे प्रियतम के न तिल न डिठौना ?
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पीर हिय की- हरियाई
तपती इस धूप में
असुंअन जल सींचूं मैं
बिरहन के रूप में..!
बंद नयन देखूं,प्रिय मुख सलौना !!
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आज़ मोरा व्याकुल सा
माथे प्रियतम के न तिल न डिठौना ?
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पीर हिय की- हरियाई
तपती इस धूप में
असुंअन जल सींचूं मैं
बिरहन के रूप में..!
बंद नयन देखूं,प्रिय मुख सलौना !!
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जवाब देंहटाएंतुरंत अपनाएं . ब्लाग का ट्रेफ़िक बढ़ाएं
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चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
alag andaaj , bhaw bahut achhe lage
जवाब देंहटाएंati sundar bhav
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