राधा-कृष्ण, शकुंतला-दुष्यंत, सावित्री-सत्यवान,रानी रूपमती-बाज बहादुर, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, सोहनी-महिवाल, ढोला-मारू की अमर प्रेम कहानियां समाज को सहज स्वीकार्य ही नहीं वरन इनका अनुगायन सतत जारी है एक सलीम और अनारकली को छोड़ कर. क्या खास था इन कथाओं में मुझे सच यक़ीन नहीं होता यदि इसका दुहराव अब होता है तो उसे कम से कम भारतीय समाज स्वीकार्य नहीं करता न ही उसे प्रतिष्ठा मिलती जैसा कि इन नायकों-नायिकाऒं को मिली है. क्या वज़ह है कि उनको इतना यश और प्रतिष्ठा दौनों ही हासिल हुई. है . यानी सामाजिक स्वीकारोक्ति के पीछे का रहस्य क्या था. सामान्यत: कि इसका प्रधान चरित्र या तो राजा था या कि उसकी सामाजिक क्षमता इतनी प्रभाव शाली थी की रसूख़दार आशिक़ के किसी भी काम को नकारना किसी आम आदमी के बस की बात न थी इन प्रेम कथाओं को कवियों के सहारे जन जन तक पहुंचाई गई.
दूसरी ओर लैला-मजनूं और हीर-रांझा के नायकों अस्तित्व बेहद-सामान्य होने के बावज़ूद उनको आज़ तक याद किया जा रहा है इसका आधार जैसा कि मुझे प्रतीत होता है - कथानक की पृष्ठभूमि पर गड़ीं लोकरंजक प्रस्तुतियां जो ततसमकालीन कवियों कथाकारों कलाकारों ने नायक नायिका के प्रति पाज़िटिव रवैया अपना कर पेश की गईं थीं. इन कथानकों को सभी भाषाई साहित्यकारों कलाकारों कवियों ने जीवित रखा. उदाहरण के तौर पर देखिये :-
रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई ! रांझा मैं विच , मैं रांझे विच , होर ख्याल ना कोई !!! " बुल्लेशाह...... ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिन से यह साबित होता है कि साहित्य-कला के ज़रिये समाज में प्रेम को स्प्रीचुअली स्वीकारोक्ति हासिल हुई. जबकि आज़ के दौर से अपेक्षा थी कि लोग कुछ ज़्यादा ज़हीन होंगे किंतु आनर-किलिंग के दौर में न तो साहित्य की चलती और न ही कला की. सामाजिक न्याय सूत्रों को तक न तो स्वीकारा जा रहा है और न ही समझा जा रहा है.
अनारकली[नग]/आनर-किलिंग तो तब भी होती ही थी, बाद के ज़माने उसे प्रतिष्ठित या महिमा मंडित करते थे. आप की बात एक हद तक सही है, सोच का मअयार अब कुछ ज़्यादा गिरा हुआ है. सही विषय पर आपने ध्यानाकर्षित किया है. धन्यवाद.
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mansoorali hashmi
विचारणीय पोस्ट
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (13/9/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
किसी भी प्रेमकथा को सामाजिक स्वीकृति मिलने के लिए एक नहीं अनेक कारण होते हैं जैसे कि कथा के चरित्र, कथा के काल की सामाजिक मान्यताएँ आदि आदि।
जवाब देंहटाएंसारे गरीब या मध्यमवर्गीय प्रेमियों की प्रेम कहानियाँ प्रेमियों की लाशों पर ही अमरता की कहानियाँ लिखवाती हैं.... या फिर आप इतने शक्तिशाली हों कि कोई आपका कुछ ना बिगाड़ सके यानी की उच्च वर्ग से हों... शशि थरूर, आमिर, सलमान के इस उम्र में प्रेम को भी सम्मान मिलता है लेकिन जरा कोई ४७ साल का मध्यम वर्गीय व्यक्ति ऐसा करे तो सभी जानते हैं कि उसका क्या होगा.. हर जगह वही फंडा है कि 'समरथ कों नहीं दोष गुसाईं'.. देखने लायक बात है कि राधा-कृष्ण की माला जपने वाले ही प्रेम के सबसे ज्यादा खिलाफ होते हैं.. अच्छी पोस्ट लेकिन इसे विस्तार दे सकते थे..
जवाब देंहटाएंThanks to all respected friends
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक पोस्ट. दीपक जी ने बहुत सटीक टिप्पणी की है, सहमत हूं उनसे, लिहाजा उनके कमेंट को ही मेरा भी माना जाये. निश्चित रूप से प्रेमकथाओं के अमर हो जाने के पीछे उन परिवारों का रसूखदार होना एक बड़ा कारण या शायद एक मात्र कारण है, वरना गरीब या मध्यम वर्गीय प्रेमकथाएं तो चरित्र पर लांछन करार दी जाती हैं.
जवाब देंहटाएंसोतने को बाध्य करता आलेख!
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पढ़कर आनन्द आ गया!
विचारणीय पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट के लिए आभार
जवाब देंहटाएंदादा जरा सोच कर आता हूँ
फ़िर टिपियाता हूँ।
बहुत अच्छी विचारणीय पोस्ट ...आभार
जवाब देंहटाएं@ललित भैया सुभीता खोली में विचार उम्दा आयेंगे
जवाब देंहटाएं@ रानी दीदी @ हर्षिता जी आप का आभार