स्निग्धा
तु मेरी सासों में घोल रहीं थी अमिय
तब से अब तक
सिर्फ़ मैं
सीख पाया हूं
प्यार की बातैं
ओ चिर छाया
तुम्हारा आभास लेकर ज़िंदा हूं
वरना कब का धुएं के गुबार के साथ
जो चिता पर उभरती लौ से भागती नज़र आती हैं
अनज़ान दिशा में गुम हो जाता
लोग तब मेरी पराजित
देह पर शोक
मनाते
बैराग भोगते वहां कुछ पल का
किंतु ज़िंदा हूं
तुम्हारे अमिय की ताकत बाकी है मुझमें
तुम से सच आज़ भी उतना ही प्यार है............
ओ मां.......तुम फ़िर उस जनम में होना मेरी मां
सच अबके जनम में तुमको
तनिक भी कष्ट न दूंगा
मां .......मुझे तुम्हारे निर्दोष प्रेम की कसम
ek parishkrit swatantra kavya ka saras udghaatan..
जवाब देंहटाएंतुम्हारा आभास लेकर ज़िंदा हूं
जवाब देंहटाएंउसी आभास और उसी अमिय की ताकत ही तो जीजिविषा प्रदान करती है.
शायद इसीलिये माँ शब्द नहीं एक एहसास है
बेहतरीन रचना, सुन्दर शब्द संयोजन और भाव
बहुत ही भावपूर्ण रचना! उतर गई सीधे!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
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