तुम्हें उस माउंट एवरेस्ट पर देखना चाहता था ,शिखर पर चढ़ने के दायित्व को बोझ समझने की चुगली तुम्हारा चेहरा और बर्ताव कर देता है।
इस चोटी पर चढ़ना है रास्ता आसान नहीं है और तो और अवरोधों से भी अटा पड़ा है । कभी किसी पर्वतारोही से पूछो..... वह बताएगा कि बेस कैंप से बाहर निकलो और पूछो कि मैं तुम्हारी चोटी पर आना चाहता हूं । तो पर्वत बताता है कि नहीं लौट जाओ यह आसान नहीं है। पर्वतारोही बताता है कि
- दशरथ मांझी ने तो ऐसे घमंडी पर्वत को बीच से चीर दिया था याद है ना...!
दशरथ मांझी को कोई कंफ्यूजन नहीं था एवरेस्ट पर चढ़ने वालों को कोई कंफ्यूजन नहीं होता। और जो कंफ्यूज होते हैं उनके संकल्प नहीं होते बल्कि वे खुद से मजाक करते नजर आते हैं।
जो लोग दुनिया को फेस करना जानते हैं वही सफलता का शिखर पा सकते हैं। *एक्सेप्टेंस और रिजेक्शन* में ही सफलता के राज छिपे हुए हैं । रिजेक्शन सबसे पहला पार्ट है। सबसे पहले हम खुद को रिजेक्ट करते हैं फिर दो चार लोग फिर एक लंबी भी आपको रिजेक्ट करती है। तब कहीं जाकर भीड़ से कोई आकर कहता है - "*वाह क्या बात है..!*"
आइए मैं अपने आप को आपके सामने खोल देता हूं। रिजेक्टेड माल हूँ... कब एक्सेप्ट हो गया पता नहीं कुछ दिन तक किया था फिर भूल गया। हुआ यूं था कि बीकॉम सेकंड ईयर में कॉलेज के किसी लड़के ने अपनी एग्जामिनेशन डेस्क बदलने के लिए इन्वेंजुलेटर से निवेदन किया।
वीक्षक ने जब यह पूछा-" भाई तुम्हें क्या तकलीफ है क्या यहां लाइट नहीं आ रहा है या यह डेस्क खुरदुरी है..? गिरीश क्या तुम्हें भी परेशानी है..?
नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं है मैंने कहा था । और उसने कहा था-" गिरीश ही मेरी समस्या है..!"
अब तक में संदिग्ध हो चुका था वीक्षक की नजर में। वीक्षक को लगा कि मैं उस साथी की नकल कर रहा हूं या उसे डिस्टर्ब कर रहा हूं।
उस लड़के ने जो कहा वह मेरी आंखों से गंगा जमुना बहाने के लिए पर्याप्त था ।
जानते हैं क्या कहा जी तो नहीं चाह रहा था कहने को पर कहना इसलिए पड़ेगा कि कोई भी किसी को रिजेक्ट करने के पहले समझने की कोशिश करें ।
हां तो उसने एक तर्क दिया था कि गिरीश को पोलियो है इसके साथ बैठने से मुझे भी यह बीमारी लग जाएगी और मुझे इसके साथ नहीं बैठना है मुझे यह पसंद नहीं है।
ऐसा रिजेक्शन मेरी कल्पना से बाहर था। हां इसके पहले भी हुआ था तब जबकि पॉलिटेक्निक कॉलेज में मैं अपनी मार्कशीट लेकर गया। तब एडमिशन करने वाला व्यक्ति मुझे कह रहा था देखो बहुत तुम डिप्लोमा इंजीनियर बनकर क्या करोगे तुमसे तो वह काम होंगे नहीं जो एक डिप्लोमा इंजीनियर को करने होते हैं।
बिना किसी को कुछ बताएं मैंने यह तय कर लिया था कि अब किसी भी कॉलेज में एडमिशन लेने की जरूरत नहीं भगवान नामक तत्व मुझे मदद करेगा। भगवान कौन है क्या है मुझे क्या मालूम कैसा दिखता है यह भी नहीं जानता। पर आस्तिक जरूर हूं आज भी उतना ही।
घर के सामने दुबे जी जो डीएन जैन कॉलेज में सेकंड ईयर के स्टूडेंट थे ने मुझे बबन भैया से मिलाया पवन भैया स्टूडेंट यूनियन के नेता थे नेता तो दुबे जी भी थे शायद ज्वाइंट सेक्रेट्री थे । और मुझे जबरदस्ती डीएन जैन कॉलेज ले जाया गया। और कहा तुम्हें एडमिशन नहीं लेना है कॉलेज में बैठा हूं फर्स्ट ईयर में सारे प्रोफेसर से पहचान करा दी प्रिंसिपल साहब से मिलवा दिया और मुफ्त में मैं बैठने लगा।
एक रिजेक्शन के बाद मिला एक्सेप्टेंस फर्स्ट ईयर प्राइवेट करने के बाद सेकंड ईयर में मैंने एडमिशन जरूर ले लिया वातावरण मेरे अनुकूल हो गया था । पर कुछ रिजेक्शन अभी भी थे एक प्रोफेसर क्यों व्यक्तिगत रूप से मुझसे नफरत करते थे वजह क्या थी मुझे नहीं मालूम पर मुझे पता चला कि वह बाकी प्रोफ़ेसर्स द्वारा मुझे पसंद करने के कारण मुझसे चिढ़ते हैं ।
हां तो वह स्टूडेंट जिसने नई जगह मांगी थी उसे वीक्षक ने बुरी तरह डपट दिया और मुझे एक बहुत बेहतर जगह दी।
रिजेक्शन के साथ एक्सेप्टेंस अगर तुरंत मिल जाता है तो शायद उत्साह दुगुना हो जाता है और साहस भी आत्म साहस में बदल जाता है। उधर सबको मुझ पर संवेदनाएं लुटाते हुए देख मैंने सब से यह अनुरोध किया कि मुझे यह भी रिजेक्शन की तरह ही लगता है तुम सब मुझे दोस्त के नजरिए से देखो। हुआ भी वही दोस्त बना दोस्तों का और फिर मित्रों को लीड भी किया। यहां पूरी कहानी बताने का अर्थ यह है कि भाई शिखर पर चढ़ने के लिए रिजेक्शन मिले तो भी कोशिश करना मत छोड़ना। और आज भी जब कोई रिजेक्शन मेरे पास आता है तो हिम्मत दुगनी बढ़ जाती है। कैसा लगा मेरा जीवन अनुभव यह क्या तुम्हारी आंखों में आंसू अरे भाई इतना तो मैं भी नहीं रोया रोने की जरूरत ही क्या है रिजेक्ट तो तुम्हें भी किया होगा किसी ने पर ध्यान रहे स्वीकृत भी बहुत लोग करते हैं और शिखर पर चढ़ने का एकमात्र यही तरीका है दूसरा कोई नहीं।
इस चोटी पर चढ़ना है रास्ता आसान नहीं है और तो और अवरोधों से भी अटा पड़ा है । कभी किसी पर्वतारोही से पूछो..... वह बताएगा कि बेस कैंप से बाहर निकलो और पूछो कि मैं तुम्हारी चोटी पर आना चाहता हूं । तो पर्वत बताता है कि नहीं लौट जाओ यह आसान नहीं है। पर्वतारोही बताता है कि
- दशरथ मांझी ने तो ऐसे घमंडी पर्वत को बीच से चीर दिया था याद है ना...!
दशरथ मांझी को कोई कंफ्यूजन नहीं था एवरेस्ट पर चढ़ने वालों को कोई कंफ्यूजन नहीं होता। और जो कंफ्यूज होते हैं उनके संकल्प नहीं होते बल्कि वे खुद से मजाक करते नजर आते हैं।
जो लोग दुनिया को फेस करना जानते हैं वही सफलता का शिखर पा सकते हैं। *एक्सेप्टेंस और रिजेक्शन* में ही सफलता के राज छिपे हुए हैं । रिजेक्शन सबसे पहला पार्ट है। सबसे पहले हम खुद को रिजेक्ट करते हैं फिर दो चार लोग फिर एक लंबी भी आपको रिजेक्ट करती है। तब कहीं जाकर भीड़ से कोई आकर कहता है - "*वाह क्या बात है..!*"
आइए मैं अपने आप को आपके सामने खोल देता हूं। रिजेक्टेड माल हूँ... कब एक्सेप्ट हो गया पता नहीं कुछ दिन तक किया था फिर भूल गया। हुआ यूं था कि बीकॉम सेकंड ईयर में कॉलेज के किसी लड़के ने अपनी एग्जामिनेशन डेस्क बदलने के लिए इन्वेंजुलेटर से निवेदन किया।
वीक्षक ने जब यह पूछा-" भाई तुम्हें क्या तकलीफ है क्या यहां लाइट नहीं आ रहा है या यह डेस्क खुरदुरी है..? गिरीश क्या तुम्हें भी परेशानी है..?
नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं है मैंने कहा था । और उसने कहा था-" गिरीश ही मेरी समस्या है..!"
अब तक में संदिग्ध हो चुका था वीक्षक की नजर में। वीक्षक को लगा कि मैं उस साथी की नकल कर रहा हूं या उसे डिस्टर्ब कर रहा हूं।
उस लड़के ने जो कहा वह मेरी आंखों से गंगा जमुना बहाने के लिए पर्याप्त था ।
जानते हैं क्या कहा जी तो नहीं चाह रहा था कहने को पर कहना इसलिए पड़ेगा कि कोई भी किसी को रिजेक्ट करने के पहले समझने की कोशिश करें ।
हां तो उसने एक तर्क दिया था कि गिरीश को पोलियो है इसके साथ बैठने से मुझे भी यह बीमारी लग जाएगी और मुझे इसके साथ नहीं बैठना है मुझे यह पसंद नहीं है।
ऐसा रिजेक्शन मेरी कल्पना से बाहर था। हां इसके पहले भी हुआ था तब जबकि पॉलिटेक्निक कॉलेज में मैं अपनी मार्कशीट लेकर गया। तब एडमिशन करने वाला व्यक्ति मुझे कह रहा था देखो बहुत तुम डिप्लोमा इंजीनियर बनकर क्या करोगे तुमसे तो वह काम होंगे नहीं जो एक डिप्लोमा इंजीनियर को करने होते हैं।
बिना किसी को कुछ बताएं मैंने यह तय कर लिया था कि अब किसी भी कॉलेज में एडमिशन लेने की जरूरत नहीं भगवान नामक तत्व मुझे मदद करेगा। भगवान कौन है क्या है मुझे क्या मालूम कैसा दिखता है यह भी नहीं जानता। पर आस्तिक जरूर हूं आज भी उतना ही।
घर के सामने दुबे जी जो डीएन जैन कॉलेज में सेकंड ईयर के स्टूडेंट थे ने मुझे बबन भैया से मिलाया पवन भैया स्टूडेंट यूनियन के नेता थे नेता तो दुबे जी भी थे शायद ज्वाइंट सेक्रेट्री थे । और मुझे जबरदस्ती डीएन जैन कॉलेज ले जाया गया। और कहा तुम्हें एडमिशन नहीं लेना है कॉलेज में बैठा हूं फर्स्ट ईयर में सारे प्रोफेसर से पहचान करा दी प्रिंसिपल साहब से मिलवा दिया और मुफ्त में मैं बैठने लगा।
एक रिजेक्शन के बाद मिला एक्सेप्टेंस फर्स्ट ईयर प्राइवेट करने के बाद सेकंड ईयर में मैंने एडमिशन जरूर ले लिया वातावरण मेरे अनुकूल हो गया था । पर कुछ रिजेक्शन अभी भी थे एक प्रोफेसर क्यों व्यक्तिगत रूप से मुझसे नफरत करते थे वजह क्या थी मुझे नहीं मालूम पर मुझे पता चला कि वह बाकी प्रोफ़ेसर्स द्वारा मुझे पसंद करने के कारण मुझसे चिढ़ते हैं ।
हां तो वह स्टूडेंट जिसने नई जगह मांगी थी उसे वीक्षक ने बुरी तरह डपट दिया और मुझे एक बहुत बेहतर जगह दी।
रिजेक्शन के साथ एक्सेप्टेंस अगर तुरंत मिल जाता है तो शायद उत्साह दुगुना हो जाता है और साहस भी आत्म साहस में बदल जाता है। उधर सबको मुझ पर संवेदनाएं लुटाते हुए देख मैंने सब से यह अनुरोध किया कि मुझे यह भी रिजेक्शन की तरह ही लगता है तुम सब मुझे दोस्त के नजरिए से देखो। हुआ भी वही दोस्त बना दोस्तों का और फिर मित्रों को लीड भी किया। यहां पूरी कहानी बताने का अर्थ यह है कि भाई शिखर पर चढ़ने के लिए रिजेक्शन मिले तो भी कोशिश करना मत छोड़ना। और आज भी जब कोई रिजेक्शन मेरे पास आता है तो हिम्मत दुगनी बढ़ जाती है। कैसा लगा मेरा जीवन अनुभव यह क्या तुम्हारी आंखों में आंसू अरे भाई इतना तो मैं भी नहीं रोया रोने की जरूरत ही क्या है रिजेक्ट तो तुम्हें भी किया होगा किसी ने पर ध्यान रहे स्वीकृत भी बहुत लोग करते हैं और शिखर पर चढ़ने का एकमात्र यही तरीका है दूसरा कोई नहीं।
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